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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके हेतुओंका विस्तार करना व्यर्थ है । यह प्रतिवादियोंके साथ हुआ जैनोंका शास्त्रार्थ सुनने योग्य है । जैनोंने अन्य हेतुभेदोंकी अपेक्षा अस्तित्व, आदि सात भंगोंको हेतुभेद माननेके लिये प्रतिवादियोंको बाध्य किया है। बौद्धोंकी वासनाका निर्वासन कर सबको स्वभाव हेतुमें ही अन्तः प्रविष्ट हो जानेका आपादन करते हुये प्रातीतिक मार्गपर बौद्धोंको दाना यह जैनोंका ही अनुपम कार्य है । दृष्टान्त देकर अविनाभावकी पुष्टि की है । अनन्तर पक्षका विचार चलाया गया है । प्रतिज्ञा वाक्यके साध्यको ही पक्ष मानकर बौद्धोंके पक्षधर्मत्वरूपका खण्डन कर चुकनेपर सपक्षसत्व रूपका विचार चलाया है । सपक्षसत्त्व यानी अन्वयदृष्टान्तके बिना भी प्राणादिमत्त्वको सद्धेतु माना गया है । भस्म, कोयला, सूखे तृण, कपडा शङ्ख, अन्धकार आदिमें, चैतन्य नहीं है । ब्रह्माद्वैतवादियोंका सर्वत्र चैतन्य मानना अप्रासंगिक है। जड़ पदार्थोंका ज्ञानद्वारा प्रतिभास होता है । स्वयं नहीं । बौद्धोंका विज्ञानाद्वैत सिद्ध नहीं हो पाता है । परिणामी सांश आत्मामें ही प्राण आदिक क्रियायें सम्भवती हैं। सबको अनेकान्तात्मकपना साधनेपर अन्वयके बिना भी अविनाभावकी शक्ति से सत्त्वहेतु समीचीन माना है। बौद्धोंने भी सबको : क्षणिकपना सिद्ध करने पर सत्त्वको सद्धेतु माना है । अतः अन्वय यानी सपक्षमें वर्तना देतुका लक्षण नहीं है । तीसस विपक्षव्यावृत्तिरूप व्यतिरेक भी हेतुलक्षण नहीं है । व्यतिरेकका अन्तिमसिद्धान्त अविनाभाव ही निकलता है । अतः वे तीनों रूप अकिंचित्कर हैं । अकेले अविनाभावसे ही असिद्ध आदि हेत्वाभासोंकी व्यावृत्ति होती है । एक अत्यावश्यक रूपसे ही सम्पूर्ण प्रयोजन सब जांय तो परदेशमें व्यर्थ तीन रूपोंका लादे फिरना उपहासास्पद के अतिरिक्त श्रमवर्धक भी है। नैयायिकोंके द्वारा पांचरूपोंका बोझ लादना तो और भी अधिक क्षोभवर्धक है । असाधारण धर्मको लक्षण पुकारनेवाले ऐसी मोटी भूलकर बैठते हैं, इसपर खेद होता है । उनके माने हुये केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी हेतुओंमें पंचरूपत्व लक्षण घटित नहीं होता है । मित्रातनयत्व और लोइलेख्यत्व आदि हेत्वाभासों में रह जाता है । अतः अव्याप्ति, अतिव्याप्तिग्रस्त लक्षण समीचीन नहीं है । अविनाभावकी शक्ति से ही प्रतिपक्षी अनुमान नहीं उठ सकेंगे तथा प्रत्यक्ष आदिसे बाधा भी नहीं आवेगी । यहां और भी विचार है । त्रैरूप्यका खण्डन कर देनेसे ही पांचरूप्यका निरास हो जाता है । जिसके पास तीन रुपया भी नहीं हैं, उसके पास पांच रुपये तो कैसे भी नहीं हैं। इसके पीछे नैयायिकों द्वारा माने गये पूर्ववत् शेषवत्, सामान्यतोदृष्ट, देतुओंके न्यारे न्यारे व्याख्यानोंका निरास किया है 1 केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकीरूप इनका व्याख्यान करना भी नहींघ टित होता है। गुण, गुणी, आदिके सर्वथा भेदको साधनेवाला अनुमान ठीक नहीं, यहां व्यतिरेक साधनेपर अच्छा विचार चलाया है। अवयव अवयवी, गुणगुणी, आदिका कथंचित् अभेद है । इस प्रकार " पूर्ववत् शेषवत् " तो केवलान्वयी नहीं है । और " पूर्ववत् नहीं है । तथा तीसरा " पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्ट " भी अन्वयव्यतिरेकी नहीं है । यह 1 सामान्यतोदृष्ट " केवलव्यतिरेकी ४१४
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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