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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विरोध, आदि दोष तो प्रतीयमान वस्तुके निकट नहीं फटकते हैं । बौद्धोंने वैसादृश्यका जैसे निर्वाह किया है, वैसे ही सादृश्यकी सिद्धि कर दी जाती है। अनेक पदार्थोंमें समानपनेका स्पष्ट प्रत्यक्ष हो रहा है । सम्पूर्ण पदार्थ समान और विसमान परिणामोंसे तदात्मक हो रहे हैं। बौद्धों माने हुये सर्वथा विलक्षण स्वलक्षणकी कभी किसी जीवको प्रतीति नहीं होती है । यहां और भी विचार चलाकर सादृश्यको परमार्थभूत साध दिया है। एकत्व या सादृश्यको जानने वाले ज्ञान अविद्यारूप नहीं हैं । प्रत्यभिज्ञानकी निर्दोषसिद्धि कराकर तर्कज्ञानको साधनेका प्रकरण चलाया है। अनुमान के लिये उपयोगी व्याप्तिरूप-संबंधका ग्रहण तर्कसे ही संभव है । बौद्ध लोग संबंध को वास्तविक नहीं मानते हैं । उनके प्रति संबंध की सिद्धि कराई है । अनेक अर्थक्रियायें संबंध द्वारा बन रहीं हैं । पुद्गलपुद्गलके संबंधसे अथवा जीव पुद्गलके सम्बन्धसे ही अनेकानेक कार्य हो रहे देखे जाते हैं। संबंध से परितोष प्राप्त होता है। शून्यवादी, तत्त्वोपप्लवबादी, ब्रह्माद्वैतवादी विद्वानों को भी संबंध स्वीकार करना अनिवार्य हो जायगा । संबंधको जाननेवाले तर्कज्ञान द्वारा ही निःसंशय अनुमान हो सकेंगे। अतः अनुमानप्रमाणको माननेवाले या संपूर्ण भूत, भविष्य या माता पिता गुरुओं के प्रत्यक्षका प्रमाणपना बखाननेवालेको तर्कज्ञानका आशीर्वाद प्राप्त करना आवश्यक है । कथंचित् गृहीत अर्थका ग्राही होनेपर भी प्रमाणता अक्षुण्ण रहती है । जैसे पाराभस्मके योग से सभी रसायनें निर्दोष हो जाती हैं, उसी प्रकार कथंचिद् लगा देनेसे दोष भी गुण हो जाते हैं । ठ वस्तुओंकी परिणतिकी भित्तिपर ही कथंचित्के अपेक्षणीयोंका सन्निवेश करता है। तर्कज्ञानसे समारोपका व्यवच्छेद होता है । ऊह प्रमाणद्वारा संबंधग्रहण करनेपर पुनः ऊइकी आवश्यकता नहीं है । जिससे कि अनवस्था हो जाय । ऊहज्ञानकी स्वयं योग्यता ही उन कार्योंको संभाल लेती है । यदि यहां कोई यों कहें कि अनुमान भी तर्कके विना ही अपनी योग्यतासे साध्यज्ञानको कर लेगा, इसपर स्याद्वादियों का बडा अच्छा उत्तर यह है कि वस्तुतः तुम्हारा कहना ठीक है। अनुमान अपने विषयकी ज्ञप्तिको स्वतंत्रता से ही संभालता है, किन्तु उसकी उत्पत्ति तो निरपेक्ष नहीं है । अतः ऊहज्ञान अनुमानका उत्पादक कारण है, जैसे कि केवलज्ञानके उत्पादक महाव्रत, क्षपकश्रेणी, द्वितीयशुक्लध्यान आदिक हैं । किन्तु केवलज्ञानके उत्पन्न हो जानेपर स्वतंत्रतापूर्वक वह त्रिलोकत्रिकालवर्त्ती समस्त पदार्थोंको सर्वदा जानता रहता है। अतः प्रत्यक्षके समान तर्क भी स्वतंत्र प्रमाण है। तर्कज्ञानसे समारोपका व्यवच्छेद और हान, उपादान, उपेक्षा बुद्धियां होती हैं। इस • प्रकार विस्तार के साथ तर्कज्ञानका साधन कर अनुमान प्रमाणकी परिशुद्धि की है । अन्यथानुपपत्तिरूपं एक लक्षणवाले हेतुसे शक्य, अभिप्रेत, असिद्ध, साध्यके अभिमुख बोध करना अनुमान है। यहां अभिनिबोधका अर्थ स्वार्थानुमान पकडना सामान्य मतिज्ञान नहीं । बौद्धोंने हेतुके तीन रूप माने हैं। उनका विस्तार के साथ खण्डन किया है । त्रैरूप्यके बिना भी अविनाभावकी शक्ति से सद्धेतुपना व्यवस्थित हो रहा है । कृत्तिकोदयको शकटोदय साधने में सद्धेतुपना है । संयोगी, समवायी, आदि
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