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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
मतिज्ञानोंको स्मृति आदिकमें ही अंतर्भाव कर पूर्ण किया है। ऐसा करनेसे उपलक्षण मानकर असंख्य भेदोंकी गुरुतर कल्पना नहीं करनी पडती है । बौद्ध, नैयायिक, मीमांसक आदि सभी प्रतिवादी स्मृतिको प्रमाण नहीं मानते हैं । किन्तु हम स्याद्वादी कहते हैं कि स्मृतिको प्रमाण न 1 माननेपर प्रत्यक्ष भी प्रमाण नहीं बन सकता है। तब तो किसी भी प्रमेयकी सिद्धि न हो सकेगी । महामारी फैलने समान शून्यवाद छा जायगा । स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अनुमान, आगम, देशप्रत्यक्ष, सकलप्रत्यक्ष, ये सर्व ही प्रमाण परस्पर अपनी सिद्धिमें सख्यभाव रखते हैं । गृहीतका ग्रहण करनेसे स्मृतिको प्रमाण नहीं माननेवाला अनुमानको भी प्रमाण नहीं मान सकेगा । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे जैसे अज्ञाननिवृत्ति होती है, उसी प्रकार स्मृति से भी प्रमिति, हान, उपादान होते हैं। केवल शरीरका काला रंग हो जाने से किसी व्यक्तिमें अस्पृश्यता, निर्बलता, मूर्खता, पराजितपन आदि दोष लगा देना विचारशीलोंको समुचित नहीं है। संपूर्ण प्रत्यक्षोंकी प्रमाणता सिद्ध करनेके लिये और अनुमानों के लिये स्मृतिको प्रमाण मानना अत्यावश्यक है। यहां स्मृतिके पृथक् प्रमाणपनका बहुत अच्छा विचार किया है । अनन्तर प्रत्यभिज्ञानकी प्रमाणताको साधते हुये अनेक पर्यायोंमें व्यापनेवाले द्रव्य विषयमें प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति मानी है । स्मरण और प्रत्यक्षसे न्यारा प्रत्यभिज्ञान है। कर्मोके विलक्षण जाति के क्षयोपशमोंसे अनेक प्रकारके स्मरण प्रत्यभिज्ञान हो जाते हैं । कोई विद्यार्थी परीक्षा 1 पर्यंत ही पाठका स्मरण रखता है। कोई छात्र दश वर्षतक नहीं भूलता है। तीसरा विनीत शिष्य जन्मपर्यन्त कठिन प्रमेयोंका अवधान रखता है । देवदत्तने अपने अधिकारीको लेन देन समझा दिया, बस, पीछे घंटे दो घंटे बाद ही वह भूल जाता है। किसी प्रमेयका स्मरण रखनेकी अभिलाषा रखते हुये भी हम आवरणवश भूल जाते हैं। किसी दुःखकर प्रकरण या ग्लानियुक्त पदार्थोक विस्मरण होना चाहते हुये भी अच्छी स्मृति होती रहती है । यही प्रत्यभिज्ञानों में समझलेना । उक्त संपूर्ण व्यवस्थाका कारण अंतरंग में ज्ञानावरणका क्षयोपशमविशेष है। दूसरे हेतुओंका तो व्यभिचार - देखा जाता है। यहां बौद्धोंके मतका निरास कर एकत्व, सादृश्य, प्रत्यभिज्ञानों और उनके विषयोंको सिद्ध किया है | अनुमानप्रमाण में लिंगके प्रत्यभिज्ञानकी अत्यावश्यकता है । अर्थक्रिया, स्थिति, परितोष, समारोपव्यवच्छेदरूप सम्बाद प्रत्यभिज्ञानकी प्रमाणताको व्यवस्थापित करते हैं । कोई बाधक नहीं है । वस्तुका कथंचित् नित्यपना माननेपर ही क्रम, अक्रमसे, अर्थक्रियायें सघती हैं । क्षणिक पक्षका अनेक बार खण्डन कर दिया गया है । प्रमाणप्रसिद्ध विप्रकृष्ट अर्थोंमें शंका नहीं करनी चाहिये । परिणामी और द्रव्यपर्यायवरूप हो रही नित्यवस्तुमें सादृश्य परिणाम बन जाता है । अभ्यासदशा में स्वतः प्रमांणपना सिद्ध हो कर अनभ्यास दशाके ज्ञानोंमें उससे प्रमाणपना जान लिया जाता है । एकत्वके समान सादृश्य भी वस्तुभूत है । अनेक सदृश वस्तुओं में न्यारा न्यारा रहनेवाला सादृश्य उनके साथ तदात्मक हो रहा है। अनेक सादृश्योंको उपचार से एक कह देते हैं। इसमें नैयायिकोंके कुतकोको अवकाश नहीं मिलपाता है । संशय,
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