________________
तत्त्वार्थ चिन्तामाणः
इन्द्रिय जीवका स्पर्शनः इन्द्रियजन्य एकदेश प्रत्यक्ष का. या जघन्य देशावधिबालेका आवलीके असंख्यातवें भाग कालतककी और अङ्गुलके असंख्यात्ने भान आकाशमें रखी हुई हपको जानने वाला अवधिज्ञान कहाँ ! और अमतानंतः प्रमेयोंका जाननेवाला सर्वशका प्रत्यक्ष का ? इन दोने प्रत्यक्षोंमें महान अन्तर है। अथवा जघन्य निगोदिया जीवका स्पर्शज्ञानजन्य छोटासा श्रुतंज्ञान कहां ? और द्वादशांगरूप सम्पूर्ण वेदोंका आगमज्ञान कहां ! फिर भी ये सभी ज्ञान समानेजातिके होनेसे प्रत्यक्ष या आगम कहे जाते हैं । उसी प्रकार अनेक प्रकारके अविनाभावी लिङ्गोंसे लिंगीके सभी ज्ञान अनुमानप्रमाण माने जाते हैं । मलें ही लिंग कहा गया न होय या दृष्टान्तमें व्याप्तिग्रहणका उल्लेख नहीं किया गया होय अथवा हेतुपक्षमें वृत्ति न होय तथा भले ही पक्ष, सपक्ष, विपक्ष, कोई न होय, फिर भी अन्यथानुपपत्तिख्य प्राणकोळेकर. हेतु जीवित रहता हुआ अनुमानको उत्पन्न करा ही देता है।
- मतिज्ञानविशेषाणामुपलक्षणता स्थितं ।
तेन सर्व मतिज्ञानं सिंद्धमाभिनिबोधिकम् ॥ ३९४ ॥
इस " मतिःस्मृतिः" आदि सूत्रमे मतिज्ञान के विशेष मेदोका उपलक्षणरूपसे स्थित होना कहा है। जैसे कि "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" कौओंसे दहीकी रक्षा करना, यहां कौआ पदसे दहीको बिगाडनेवाले बिल्ली कुत्ता, मूमटा, चील, गिलगिलिया आदि सबका ग्रहण है। ऐसे ही स्मृति आदिकसे सभी प्रतिभ, स्वानुभूति, स्फूर्ति, प्रेक्षा, प्रज्ञा आदिका संग्रह कर लिया जाता है। तिस कारण इन्द्रिय अनिन्द्रियजन्य सर्व ही मतिज्ञान आमिनिबोधिक सिद्ध हो जाते हैं। अवान्तर भेद प्रभेदोंमें पडे हुये सूक्ष्म अन्तर ग्राह्य नहीं हैं। स्थूलरूपसे भेद करनेवाले सभी गम्भीर विद्वानोंको - इस बातका ध्यान रखना पड़ता है । यहांतक मतिज्ञानके सम्पूर्ण अर्थान्तर विशेषोंका वर्णन कर दिया गया है।
- इस सूत्रका सारांश । इस सूत्रके प्रकरणोंका संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है। प्रथम ही मति आदि पांचों ज्ञानोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, आदिके संग्रह नहीं होनेकी आशंका उपस्थित होनेपर मतिज्ञानमें ही इन सबका समावेश कर दिया गया बताया है। कारण कि ये स्मृति आदिकज्ञान मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं। प्रकार अर्थवाले इति शब्दसे दूसरे वादियोंद्वारा माने गये बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, सम्भव, उपमान, आदि प्रमाणोंका भी मतिज्ञानमें ही संग्रह करा दिया है। विशिष्ट स्मृति, विलक्षण प्रतिभा, आदि ज्ञानोंको धास्नेवाले मनुष्य लोकमें मेधावी, प्रज्ञाशाली तार्किक आदिक उपाधियों द्वारा उद्घोषित होते हैं। ये सब मतिज्ञानी हैं। इति शब्दका समाप्ति अर्थकर संपूर्ण