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तत्वार्थ लोक वार्तिके
आधा नाप अर्ध आढक है । सौमें पचास हैं । इस प्रकारकी प्रतिपत्तियां होनेका अन्यथा यानी सम्भवको न्यारा प्रमाण मानेविना विरोध है । एक न्यारा प्रमाण प्रातिभ भी है । अत्यन्त अभ्यासके वशसे अन्य जनोंकरके नहीं जाने गये रत्न, सुवर्ण, आदिके प्रभावकी झट प्रतिपत्ति होना देखा जाता है | नवीन नवीन उन्मेषोंको धारनेवाली प्रतिभा बुद्धिसे ऐसे ज्ञान हो जाते हैं कि मेरा भाई कल आवेगा, अन्न महार्घ्य ( महंगा ) होगा, सुवर्ण मन्दा जायगा इत्यादि ज्ञान अनुभववेद्य हो रहे हैं। सम्यग्दर्शनका या आत्मानुभवका संवेदन भी विलक्षणज्ञान है । इस प्रकार कोई अन्य विद्वान् सात, आठ, नौ, आदि प्रमाण माननेवाले कह रहे हैं ।
तान्प्रतीदमुच्यते;
मीमांसक आदि विद्वानोंके प्रति आचार्य महाराज द्वारा ग्रह समाधान कहना पडता है कि
सिद्धः साध्याविनाभावो ह्यर्थापत्तेः प्रभावकः । संभवादेश्व यो हेतुः सोपि लिंगान्न भिद्यते ॥ ३९२ ॥
साध्य के साथ अविनाभाव रखना ही अर्थापत्ति प्रमाणको उत्पन्न करानेवाला सिद्ध किया गया है । तथा सम्भव, प्रातिभ आदि प्रमाणोंका उत्थापक जो हेतु माना गया है, वह भी अविनाभावी हेतुसे भिन्न नहीं है । अर्थात् अविनाभावी उत्थापक देतुओंसे उत्पन्न हुये सम्भव आदिक भी अनुमान प्रमाण में गर्भित हो जाते हैं। अविनाभावसे रीते उत्थापक अर्थसे उपजे तो सम्भव - प्रातिभ, आदि ज्ञान अप्रमाण हैं । उपमान प्रमाण तो सादृश्य प्रत्यभिज्ञानरूप हमने कंठोक्त स्वीकार ही किया है । अतः उक्त प्रमाणोंसे अतिरिक्त अन्य प्रमाण माननेकी आवश्यकता नहीं है ।
दृष्टांतनिरपेक्षत्वं लिंगस्यापि निवेदितम् ।
तन्न मानांतरं लिंगादर्थापत्यादिवेदनम् ॥ ३९३ ॥
-मीमांसकोंने अर्थापत्ति और अनुमानका जो यह भेदक माना है कि जहां दृष्टान्तमें व्याप्ति ग्रहण होकर न्यारे पक्ष में हेतु द्वारा सांध्यको जाना जाता है, वह अनुमान प्रमाण है और वहां ही व्याप्तिग्रहण कर उसी स्थलपर अन्यथानुपपन्न पदार्थसे अदृष्टपदार्थको जाना जाता है । वह अर्थापत्ति है । आचार्य कहते हैं कि यह भेद करना ठीक नहीं है । क्योंकि ज्ञापक हेतुका दृष्टान्तकी नहीं अपेक्षा रखनापन भी हमने निवेदन कर दिया है। यानी अन्वय दृष्टान्तके बिना भी हेतुओं से साध्यका ज्ञान अनुमान द्वारा हो जाता है । तिस कारण लिंगसे उत्पन्न हुये अनुमान प्रमाणसे अतिरिक्त अर्थापत्ति, सम्भव, प्रातिभ आदिक न्यारे प्रमाण नहीं हैं। जैसे प्रत्यक्षके कारण चक्षुः, कर्म क्षय, क्षयोपशम, आदि भिन्नजातिके होते हुये भी उनका कार्य प्रत्यक्ष एकसा माना गया है । एक