________________
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
प्रकार " इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं " अथवा " अणिंदइन्दियजं " इन वाक्योंके योगविभागकर वाक्यभेद कर देनेसे उक्त अर्थ निकल आता है । कैसे निकलता है ! इसपर यह कहना है कि मनरूप अनिन्द्रियसे उत्पन्न हुआ आभिनिबोधिक तो अनिन्द्रियसे सहकृत लिंगसे उत्पन्न हुआ और नियमयुक्त साध्यके अभिमुख हो रहा ज्ञान है, इस प्रकार व्याख्यान किया गया है। भावार्थ-इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे मतिज्ञान उत्पन होता है । इस पहिले वक्यकरके अवग्रह आदिक गृहीत हो जाते हैं और अनिन्द्रियसे मतिज्ञान होता है । इस दूपरे वाक्यमें लिंगसे सहकृतपना डालकर अभिनिबोध करके स्वार्थानुमानका संग्रह हो जाता है। - नन्वेवमप्यर्थापत्ति प्रमाणान्तरमप्रत्यक्षत्वात् परोक्षभेदेपूक्तेष्वनतर्भावात् । प्रमाणषटु विज्ञातस्यार्थस्यान्यथाभवनयुक्तस्य सामर्थ्याददृष्टान्यवस्तुकल्पने अर्थापत्तिव्यवहारात् । तदुक्तं । "प्रमाणषट विज्ञातो यत्रार्थोन्यथाभवन् । अदृष्टं कल्पयेदन्यं सार्थापत्तिरुदाहृता ॥"
यहां मीमांसकोंकी शंका है कि इस प्रकार अर्थापत्ति नामका भी एक न्यारा प्रमाण मानना चाहिये। क्योंकि वह अविशद होनेके कारण प्रत्यक्षप्रमाणरूप तो नहीं है । और परोक्ष प्रमाणके कहे हुये मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध, आगम इन भेदोंमें उस अर्थापत्तिका अंतर्भाव नहीं होता है । लौकिक जनोंका भी इस लक्षणमें अर्थापत्तिप्रमाणरूपसे व्यवहार हो रहा है। उसका यह लक्षण है कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाद, अर्थापत्ति, अभाव, इन छह प्रमाणोंसे अच्छा जान लिया गया जो अर्थ उस अदृष्टके विना नहीं होनेपनसे युक्त है, उस अर्थ द्वारा जिस प्रमाणकी सामर्थ्यसे अदृष्ट हो रही दूसरी वस्तुकी कल्पना की जाती है, वह अर्थापत्ति प्रमाण है। वही हमारे ग्रन्थोंमें कहा गया है कि प्रत्यक्ष आदि छैऊ प्रमाणोंमेंसे चाहे जिस प्रमाणके द्वारा भले प्रकार जान लिया गया अर्थ जहां अनन्ययाभूत हो रहा है, उस दूसरे अदृष्ट अर्थकी जिस प्रमाणसे कल्पना कराई जाती है, वह अर्थापत्ति प्रमाण समझा गया है ।
प्रत्यक्षर्विका ह्यापत्तिः प्रत्यक्षविज्ञातादर्थादन्यत्रादृष्टेर्थे प्रतिपत्तियथारात्रिभोजी देवदत्तोयं दिवाभोजनरहितत्त्वे चिरंजीवित्वे च सति स्तनपीनांगत्वान्यथानुपपवेरिति ।
____मीमांसक विद्वान् अपनी छह प्रमाणोंसे हुई अर्थापत्तियोंके उदाहरण स्वयं दिखला रहे हैं। तिनमें प्रत्यक्षप्रमाणको परम्परा कारण मानकर हुई अर्थापत्तिका लक्षण यह है कि प्रत्यक्षसे जान लिये गये और अविनाभूत हो रहे अर्थके द्वारा जो अदृष्ट अर्थमें प्रत्तिपत्ति होना है, वह प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्ति है। अच्छे घरकी विधवावधूकी गर्भयोग्य उदरवृद्धिको देखकर उसके व्यभिचारदोषका ज्ञान कर लिया जाता है । प्रसिद्ध उदाहरण यह है कि भोजन करनेवाला और भोजन नहीं करनेवाला इस प्रकार विवादमें पड़ा हुआ यह देवदत्त अवश्य रातमें खाता होगा, क्योंकि दिनमें भोजन करनेसे रहित होता हुआ और अधिक कालतक जीवित होता संता यह देवदत्त