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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नहीं किया जा सकता है । श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने गोम्मटसारमें लिखा है " अहिमुइणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिदइंदियजं । अवग्गहईहावाया धारणगा होन्ति पत्तेयं " इस प्रकार हमको हमारे ही सिद्धान्त से विरोध आगया, दिखलाने पर तो हमें समाधान कहनेके लिये बाध्य होना पडता है ।
सत्यं स्वार्थानुमानं तु विना यच्छब्दयोजनात् ।
तन्मानांतरतां मागादिति व्याख्यायते तथा ॥ ३९१ ॥
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किसी एकदेशीयका यह कहना सत्य है । हमको आधे ढंगसे स्वीकृत है । शद्वकी योजना के विना जो हेतुजन्य - स्वार्थानुमान हो रहा है, वह मतिज्ञानके सिवाय दूसरे श्रुत, अवधि, आदि प्रमाणपनको प्राप्त न हो जावे, इस कारण तिस प्रकार व्याख्यान करदिया गया है । अर्थात् शद्वकी योजना सहित हो रहा परार्थानुमान भले ही श्रुतज्ञान बन जाय, किन्तु अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान नहीं बन रहा स्वार्थानुमान तो अभिनिबोध ( मतिज्ञान ) ही है ।
न हि लिंगज एव बोधोभिनिबोध इति व्याचक्ष्महे । किं तर्हि, लिंगजो बोधः शब्दयोजनरहितोभिनिबोध एवेति तस्य प्रमाणान्तरत्वनिवृत्तिः कृता भवति सिद्धांतश्च संगृहीतः स्यात् । न हीन्द्रियानिन्द्रियाभ्यामेव स्वविषयेभिमुखो नियमितो बोधोभिनिबोध इति सिद्धान्तोस्ति स्मृत्यादेस्तद्भावविरोधात् । किं तर्हि । सोनिन्द्रियेणापि वाक्यभेदात् । कथं अनिन्द्रियजन्याभिनिबोधिकमनिंद्रियजाभिमुखनियमितबोधनमिति व्याख्यानात् ।
ज्ञापक हेतुसे ही उत्पन्न हुआ ज्ञान अभिनिबोध होता है । इस प्रकार एवकार लगाकर हम नहीं बखान रहे हैं। तो क्या कह रहे हैं ? सो सुनो, वाचक शब्दोंकी जोडकलासे रहित हो रहा जो लिङ्गजन्य ज्ञान ( स्वार्थानुमान ) है, वह अभिनिबोध ही है । इस प्रकार उद्देश्यदलमें एवकार नहीं लगाकर विधेयदलमें एवकार द्वारा अवधारण किया है । इस कारण उस लिंगजन्य ज्ञानको मतिज्ञानपना ही स्थापनकर श्रुतज्ञान आदि अन्य प्रमाणपन हो जाने की निवृत्ति कर दी गई। है । और यों कहने से हमारे जैन सिद्धान्तका संग्रह भी कर लिया गया समझ लो । केवल इन्द्रियों और अनिन्द्रियोंकरके ही अपने विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शद्ब और सुख, ज्ञान, वेदना, आदि विषयों में अभिमुख हो रहा नियम प्राप्त बोध ही अभिनिबोध है, यह जैम सिद्धान्त नहीं है । यों मानने पर तो स्मृति, तर्क, संज्ञा, इन ज्ञानोंको उस अभिनिबोधपनके सद्भावका विरोध हो जावेगा अर्थात् इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे नियमित हो रहे अभिमुख आये हुये विषयों में एक देश विशद जानने को ही अभिनिवोध यदि माना जावेगा तो स्मृति, संज्ञा, चिंता, ज्ञानोंको अभिनिबोधपना विरुद्ध हो जायगा, तो वह अभिनिबोध क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर हमारा यह उत्तर है कि वह अभिनिबोध अनिन्द्रियकरके भी अपने विषयमें अभिमुख होकर नियमित अर्थको जान रहा है । इस
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