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तत्त्वार्थश्लोकवातिक
अन्य रसना, प्राण, स्पर्शन, नेत्र, और मन इन्द्रियसे उत्पन्न हुये मतिज्ञानरूप कारणोंसे श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा। इसी बातको स्पष्टकर दिखलाते हैं।
शद्धं श्रुत्वा तदार्थानामवधारणमिष्यते ।
यः श्रुतं तैर्न लभ्येत नेत्रादिमतिजं श्रुतम् ॥३४॥ - शब्दको सुन करके उसके वाच्य अर्थोका निश्चय ही श्रुतज्ञान जिन वादियोंके द्वारा माना जाता है, उन करके नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न हुये मतिज्ञानसे बनाये गये श्रुतज्ञानका लाम में किया जायगा। किन्तु देखा जाता है कि स्पर्शन इन्द्रियोंसे रूखे, चिकने, ठण्डे, आदिको जानकर बनसे सो अर्थ इंट, मलाई, मखमल, आदि अर्थोका अंधेरेमें श्रुतज्ञान हो जाता है । रसना इन्द्रियसे सैलापन आदि रस या रसवान् स्कन्धोंको चख कर रसोंके तारतम्यरूप अन्य पदार्थोका यानी. पहिले आमसे यह अधिक मोठा आम है और अमुक आम न्यून रसवाला था, ऐसे ज्ञान हो जाते हैं, अथवा इन लड्डुओंमें खांड अधिक है तथा दूसरे लड्डुओंमें बूंदी कमती है, फलाने हलकाईके ये बनाये हुये हैं, आदि । एवं प्राण इन्द्रियसे सुगंध दुर्गध या गन्धवान् द्रव्यका मतिज्ञान करके पीछे उस इत्रके निर्मापक कर्ता, स्थान, भाव, गन्ध, तारतम्य, आदि अर्थान्तरोंका श्रुतेज्ञान हो जाता है । नेत्रद्वारा काले, नीले आदि रूपोंको देखकर उन अर्थोके सजातीय विजातीय अन्य पदार्थोका श्रुतज्ञान होता देखा जाता है । कर्ण इन्द्रियद्वारा शब्दको सुनकर वाच्य अर्थका ज्ञान तो आप मानते ही हैं । इसी प्रकार अंतरंग इन्द्रिय मनसे सुख, दुःख, वेदना, आदिका मानस मतिज्ञान किये पीछे रोगका या इष्ट, अनिष्ट, पदार्थोके ग्रहण, त्यागका परामर्शरूप श्रुतज्ञान होता रहता है। संकल्प विकल्प करनेवाले जीवोंके या न्यायशास्त्रके विचारनेमें उपयोग रखनेवाले विद्वानोंके तो मानस मंतिज्ञानसे उत्पन्न हुए असंख्य श्रुतज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं । उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीमें मानस मतिज्ञानको व्यवहित, अव्यवहित, रूपसे कारण मानकर हुये अनेक श्रुतज्ञानोंका समुदाय रूप ध्यान है । अतः केवलशब्दको सुनकर वाच्य अर्थके ज्ञान होनेको ही श्रुतज्ञान नहीं समझना, किन्तु अन्य इन्द्रियोंसे भी मतिज्ञान होकर पीछे श्रुतज्ञान होते हैं । श्रुतज्ञानको भी कारण मानकर अन्य श्रुतज्ञान होते जाते हैं । जैसे कि घट शब्दको सुनकर मिट्टीके घडेका ज्ञान हुआ। पीछे जल धारण शक्तिका ज्ञान दूसरा श्रुतज्ञान हुआ, यह श्रुतज्ञानसे जन्य श्रुतज्ञान है । अथवा नेत्रोंसे दूरवर्ती धुयेंको देखकर उससे भिन्न अग्निका ज्ञान होना प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। तथा वह प्रदेश उष्ण है । यह दूसरा श्रुतज्ञान हुआ । इस प्रकार पहिले पहिले श्रुतज्ञानोंसे हजारों श्रुतज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं। संज्ञी जीवके होनेवाले चारों ध्यानोंमें अन्तर्मुहूर्त तक यही धारा चलती रहती है। बहुत पहिले समयमें हुआ मतिज्ञान उन श्रुतज्ञानोंका कारण मान लिया जाता है, जैसे कि मनःपर्यय ज्ञान और श्रुतज्ञानका परम्परासे कारण दर्शन हो जाता है । रूपके ज्ञान या रसके ज्ञानमें जैसे चक्षु, अचक्षुदर्शन