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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अव्यवहित कारण हैं, वैसे श्रुत और मनःपर्ययमें नहीं । पहिले दर्शन होता है पीछे मतिज्ञान उसके पीछे श्रुतज्ञान और कभी कभी अनेक श्रुतज्ञान भी होते रहते हैं। उनमें वह पहिले हुआ दर्शन ही परम्परासे कारण माना जाता है । इसी प्रकार पहिले दर्शन पुनः ईहा मतिज्ञान, पश्चात् मनःपर्यय ज्ञान होता है। प्रकरणमें छऊ इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुये मतिज्ञानके पश्चात् अर्थान्तरोंका ज्ञान होना रूप श्रुतज्ञान माना गया है।
यदि पुना रूपादीनुपलभ्य तदविनाभाविनामर्थानामवधारणं श्रुतमित्यपीष्यते श्रुत्वा. वधारणात् श्रुतमित्यस्य दृष्ट्वावधाणात् श्रुतमित्याधुपलक्षणत्वादिति मतं तदा न विरोध: प्रतिपचिगौरवं न स्यात् ।
यदि तुम फिर यह कहो कि रूप, रस, स्पर्श, आदिकोंके साथ अविनाभाव रखनेवाले अन्य अर्थोका अवधारण करना भी श्रुतज्ञान है, यह भी हमको इष्ट है। सुनकरके अवधारण करनेसे श्रुतज्ञान होता है यह तो उपलक्षण है । किन्तु देखकरके, छू करके, सूंघ करके, चाख करके और मानस मतिज्ञान करके भी श्रुतज्ञान होते हैं। रोटी खवादो, यहां रोटी पदसे दाल, साग, चटनी, मोदक आदि सबका ग्रहण है। कौआसे दही की रक्षा करना, यहां कौआ पदसे दहीको बिगाडनेवाले बिल्ली, कुत्ता, चील, आदि सबका ग्रहण है, ऐसे ही यहां भी रूप आदिकोंके मतिज्ञानोंका ग्रहण करना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मन्तव्य होय तव तो हम जैनोंको कोई विरोध नहीं है। उपलक्षण माननेसे प्रतिपत्ति करनेमें गौरव भी नहीं होवेगा। अन्यथा एक एकका नाम लेनेसे शिष्यको समझने में भारी बोझ पडता।
न चैवमपि मतेः श्रुतस्याभेदः सिध्येत् तल्लक्षणभेदाचेत्युपसंहर्तव्यम् ।
और इस प्रकार भी मतिज्ञानसे श्रुतज्ञानका अभेद सिद्ध नहीं हो पावेगा। क्योंकि उन दोनोंके लक्षण न्यारे न्यारे हैं। इस प्रकार यहां चलाये गये प्रकरणका अब संकोच करना चाहिये अर्थात्सुनना, चाटना, छंना आदि इन्द्रियजन्य ज्ञान मतिज्ञान हैं और इन मतिज्ञानोंसे पीछे होनेवाला अर्थनिर्णय श्रुतज्ञान है। अर्थसे अर्थान्तरके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। जहां कार्यकारणकी अभेदविवक्षा है वहां धूमसे अग्निका ज्ञान होना अभिनिबोध मतिज्ञान है और मेदविवक्षा होनेपर धूमसे अग्निका ज्ञान श्रुतज्ञान है । इस प्रकार लक्षणके भेदसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका मेद है।
तस्मान्मतिः श्रुताद्भिन्ना भिन्नलक्षणयोगतः।
अवध्यादिवदादिभेदाचेति सुनिश्चितम् ॥ ३५॥ ___ इस कारण मतिज्ञान भिन्न भिन्न लक्षणका सम्बन्ध होनेके कारण श्रुतज्ञानसे भिन्न है जैसे कि अवधि आदिक ज्ञान श्रुतज्ञानसे भिन्न है अथवा जैसे अवधि आदिकसे मतिज्ञान भिन्न है वैसे