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तत्त्वार्थचन्तामाणिः
हेतुओंसे जड चेतन, आकाश पुद्गल, मुक्त, संसारी, आदिमें एकपना नहीं साधा जाता है। पशुपनसे गधे और घोडे में सर्वथा एकपना साधनेवाला पहिली श्रेणीका मूर्ख है। ___ केचिदाहुर्मतिश्रुतयोरेकत्वं श्रवणानिमित्तत्वादिति, नेपि न युक्तिवादिनः । श्रुतस्य साक्षाच्छ्रवणनिमित्तत्वासिद्धेः तस्यानिद्रियवत्त्वादृष्टार्थसजातीयविजातीवनानार्थपरामर्शनस्वभावतया प्रसिद्धत्वात् ।
कोई वादी यहां इस प्रकार कहरहे हैं कि कर्ण इन्द्रियको निमित्त पाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, इस कारण दोनोंका एकपना है, ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहनेवाले वे वादी भी युक्तिपूर्वक कहनेकी देव रखनेवाले नहीं हैं । क्योंकि कर्णइन्द्रियको साक्षात् निमित्त मानकर श्रुतज्ञानका उत्पन्न होना असिद्ध है । कर्णइन्द्रियजन्य मंतिज्ञानमें तो अव्यवहित रूपसे निमित्तकारण कर्ण इन्द्रिय है। हां, बहुतसे श्रुतज्ञान शब्दको सुनकर वाच्य अर्थको ज्ञप्तिके लिये उत्पन्न होते हैं। उनमें परम्परासे कृर्णइन्द्रिय कारण है। कानसे शद्बोंको सुनकर कर्णजन्य मतिज्ञान होता है, पश्चात् संकेत ग्रहणका स्मरण होता है, पुनः वाच्य. अर्थका ज्ञान हुआ श्रुतज्ञान समझा जाता है। "श्रुतमनिन्द्रियस्य" इस सूत्रके अनुसार उस श्रुतज्ञानकी अनिन्द्रियवान्पना यानी मनको निमित्त मानकर उत्पन्न होने पन और प्रत्यक्षसे नहीं देखे गये सजातीय और विजातीय अनेक अर्थोंका विचार करनारूप स्वभावोंसे सहितपने करके प्रसिद्धि होरही है।
- श्रुत्वावधारणाये तु श्रुतं व्याचक्षते न ते तस्य श्रोत्रमतेर्भेदं प्रख्यापयितुमीशते । श्रुत्वावधारणाच्छूतमित्याचक्षाणाः शद्धं श्रुत्वा तस्यैवावधारणं श्रुतं सपतिपन्नास्तदर्थस्यावधारणं तदिति प्रष्टव्याः । प्रथमकल्पनायां श्रुतस्य श्रवणमतेरभेदप्रसंगोऽशक्यप्रतिषेधः, द्वितीयकल्पनायां तु श्रोत्रमतिपूर्वमेव श्रुतं स्यानेंद्रियांतरमतिपूर्व । तथाहि --
शब्दको सुनकर निर्णय करनेसे श्रुतज्ञान होता है, इस प्रकार जो श्रुतका व्याख्यान करते हैं वे वादी तो उस श्रुतज्ञानका कर्णइन्द्रियजन्य मतिज्ञानसे भेदको प्रसिद्ध करानेके लिये समर्थ नहीं हैं। हम जैनोंको उनसे पूंछना चाहिये कि सुन करके अवधारण करनेसे श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार व्यक्त कहनेवाले वादी शब्दको सुनकर उसी शद्बके निर्णयको श्रुतज्ञान समझ बैठे हैं ? अथवा इस शब्द द्वारा कहे गये वाच्य अर्थके निर्णयको श्रुतज्ञानपनेका विश्वास कर रहे हैं। बताओ। पहिली कल्पना लेनेपर तो श्रुतज्ञानका कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञानसे अभेद हो जानेके प्रसंगका कोई निषेध नहीं कर सकता है। क्योंकि शद्बका श्रावण प्रत्यक्ष मतिज्ञान है और उसीको तुमने श्रुतज्ञान कह दिया है । हां, दूसरी कल्पना स्वीकार करनेपर तो कुछ कुछ ठीक दीखता है। किन्तु इतना दोष है कि अकेले कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको ही कारण मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न हो सकेगा।