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तत्त्वार्थश्लोकवातिक
और मन हैं । आचार्य कहते हैं कि यह हेतु भी श्रेष्ठ नहीं है । क्योंकि इसमें स्वरूपासिद्ध दोष है। साक्षात् अव्यवहित रूपसे श्रुतज्ञान इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं करता है । 'हां, परम्परासे तो उस 'श्रुतज्ञानको बहिर् इन्द्रियोंकी अपेक्षा है, किन्तु एतावता उनके भेदकी ही सिद्धि होगी, मतिज्ञानको साक्षात् रूपसे बहिरंग इन्द्रियोंकी अपेक्षा है । और श्रुतज्ञानको व्यवहितरूपसे बहिरंग इन्द्रियोंकी अपेक्षा है । इस प्रकार विरुद्धधर्मोंसे आरूढपनेकी सिद्धि हो जानेसे मति और श्रुतमें 'मेद सिद्ध हो जायगा । अतः उक्त हेतु विरुद्ध भी हुआ।
नानिंद्रियनिमित्तत्वादीहनश्रुतयोरिह । तादात्म्यं बहुवेदित्वाच्छूतस्येहाव्यपेक्षया ॥ ३२ ॥ अवग्रहगृहीतस्य वस्तुनो भेदमीहते । व्यक्तमीहा श्रुतं त्वर्थान् परोक्षान् विविधानपि ॥ ३३ ॥
एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पचेन्द्रियजीवोंतक अवग्रह मतिज्ञान ही पाया जाता है। ईहा, अवाय, धारणा तो संज्ञी जीवोंके ही होते हैं । इस प्रकरणमें ईहामतिज्ञान "और "शब्दजन्य वाच्य अर्थ ज्ञानरूप श्रुतज्ञानका निमित्त कारण मन है । अतः मति और श्रुतमें 'मनको निमित्तपना हो जानेसे दोनोंका तादात्म्य है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्यों कि ईहा मतिज्ञानकी अपेक्षासे श्रुतज्ञान बहुत अधिक विषयको जाननेवाला है । अवग्रहसे ग्रहण की गयी वस्तुके विशेष अंशोमें संशय होनेपर उसके निरासको लिये प्रवर्त्तता हुआ और तव्यप्रत्ययान्तसे कहा गया ऐसा ईहा ज्ञान वस्तुके केवल थोडे भेद अंशका प्रकटरूपसे ईहन करता है। और श्रुतज्ञान तो नाना प्रकारके परोक्ष अर्थीको भी जानता है । कहां तो बिन्दुमात्र ईहा ज्ञानका विषय और कहां श्रुतज्ञानका समुद्रसमान अपरिमित विषय । ऐसी दशामें भला ईहामतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों एक कैसे हो सकते हैं ! अर्थात्-नहीं हो सकते हैं। यों तो सभी ज्ञानोंमें उपादान कारण एक आत्मा है । इतने ही से क्या सभी ज्ञान एक हो जायंगे ! कभी नहीं।
___ न हि यादृशमनिद्रियनिमित्तत्वमीहायास्तादृशं श्रुतस्यापि । तनिमित्तत्वमात्रं तु न तयोस्तादात्म्यगमकमविनाभावाभावात् सत्त्वादिवत् ।
यद्यपि ईहा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मनसे होते हैं । किन्तु जिस प्रकारका ईहाज्ञानका निमित्तपना मनको प्राप्त है, उस सरीखा श्रुतज्ञानका भी निमित्तपना मनमें नहीं है। कुलालका घटको और पुत्रको उत्पन्न करनेमें निमित्तपना न्यारा न्यारा है। हां, केवल सामान्यरूपसे उस मनका निमित्तपना तो उन मति और श्रुतके तादात्म्यकपनका गमक हेतु नहीं है । क्योंकि प्रकरणप्राप्त हेतु "और साध्यकी अविनाभावरूप व्याप्ति नहीं बनती है। जैसे कि सामान्यधर्म सत्ता' या द्रव्यत्व आदि