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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सत्तायां हि प्रसाध्यायां विशेषस्यैव साधनात् । यथानन्वयता दोषस्तथात्राप्यनिदर्शनात् ॥ ३८३ ॥
अब आचार्य कहते हैं कि जिस बातसे इनको भय लगता था वही बात इनके सन्मुख आकर स्वयं उपस्थित होगई, अर्थात् शून्यवादी प्रमाणोंकी सिद्धिको नहीं मानना चाहते थे । इष्टसाधन हेतुका अन्वयदृष्टान्त नहीं मिलनेका उनको बल था कि अन्वयदृष्टांतके विना इष्ट साधनहेतु प्रमाणोंको सिद्ध नहीं कर सकता है । हम शून्यवादियोंने अन्वयदृष्टान्त बन जाने के लिये कोई वस्तुभूत पदार्थ माना ही नहीं है । अतः हेतुके अन्वयदृष्टान्तसे रहितपनका प्रसंग देना निःसंशय हो जाता है, किन्तु उन शून्यवादियोंको विचारना चाहिये कि चाहे शून्यवादी होय या तत्त्वोपप्लववादी होय अथवा वल्लभसंप्रदायके अनुसार सर्वत्र प्रेमी भगवानकी उपासना करनेवाले होंय, उनको सम्वृत्तिसे या व्यवहारसे अथवा कल्पनासे सामान्य करके प्रमाण मानना ही पडेगा । सामान्यरूपसे प्रमाणकी सत्ताको अच्छा साध्य करते सन्ते, ऐसी दशामें सामान्यप्रमाणकी सत्ता सिद्ध हो चुकनेपर विशेष प्रमाणकी ही सत्ताको साध्य बनानेमें इष्टसाधन हेतुका प्रयोग करना सफल हो जाता है। जिस प्रकार अन्वयरहितपना दोष हमारे ऊपर लगता है, उसी प्रकार दृष्टांतके न होनेसे तुम शून्य वादियोंके यहां भी अपने इष्टकी सिद्धि नहीं हो सकती है । यथार्थ बात यह है कि दृष्टान्त कोई साध्यसिद्धिका मुख्य अंग नहीं है। बालकोंको व्युत्पन्न करनेके लिए कचित् उपयोगी मान लिया गया है।
हेतोरनन्वयस्यापि गमकत्वोपवर्णने । सत्ता साध्यास्तु मानानामिति धर्मी न संगरः ॥ ३८४ ॥
भगवान् तुमको सम्यग्ज्ञान करावें यदि अन्वय दृष्टान्तसे रहित हेतुको भी साध्यका ज्ञापकपना अमीष्ट करलोगे, तब तो प्रमाणोंकी सत्ता भी साध्य हो जाओ । इस प्रकार धर्मी प्रसिद्ध ही होना चाहिये, यह प्रतिज्ञा नहीं सधसकी। ..
धर्मिधर्मसमूहोत्र पक्ष इत्यपसारितम् ।
एतेनेति स्थितः साध्यः पक्षो विध्वस्तबाधकः ॥ ३८५॥ ___ इस प्रकरणमें धर्मी ( आधार ) और धर्म ( साध्य ) का समुदाय पक्ष है, यह भी इस उक्त कथनकरके निवारण कर दिया गया है । अतः इससे यह स्थित हुआ कि जिसके बाधकज्ञान विश्वस्त हो गये हैं वह साध्य पक्ष माना गया है ।