________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
व्याप्तिकाले मतः साध्य पक्षो येषां निराकुलः । सोन्यथैव कथं तेषां लक्षणव्यवहारयोः ॥ ३८६ ॥ व्याप्तिः साध्येन निर्णीता हेतोः साधं प्रसाध्यते । तदेवं व्यवहारेपीत्यनवद्यं न चान्यथा ॥ ३८७ ॥
जिन विद्वानोंके यहां व्याप्तिग्रहण करते समय निराकुल होकर साध्य ही पक्ष माना गया है, उनके यहां वह साध्य व्याप्तिस्वरूप ग्रहण करनेके कालमें और अनुमान प्रयोग करनेपर व्यवहारकालमें दूसरे दूसरे प्रकारका कैसे हो सकता है ! साध्यके साथ हेतुकी व्याप्ति निर्णीत हो रही भले प्रकार जब व्याप्तिकालमें साधी जा रही है, तब तो उसी प्रकार व्यवहारकालमें भी साध्य उतना ही पकडा जायगा । दूसरे ढंगसे व्यवस्था करना ठीक नहीं है । जो विचारशील विद्वान् पंच पुरुषों में निर्णीत हुआ है, उसको व्यवहारमें लाओ यह निर्दोषमार्ग है।
धर्मिणोप्यप्रसिद्धस्य साध्यत्वाप्रतिघातितः।
अस्ति धर्मिणि धर्मस्य चेति नोभयपक्षता ॥ ३८८ ॥
अतः अप्रसिद्ध हो रहे भी धर्मीको साध्यपना प्रतिहत नहीं हो पाता है । अर्थात् अप्रसिद्ध धर्मीका भी साध्यपना सुरक्षित है । और धर्मीके होनेपर धर्मका अस्तित्व है । इस कारण धर्मी और धर्म दोनोंके समुदायको पक्ष कहना ठीक नहीं है, व्यर्थ पडता है ।
तवत्र साधनाद्वोधो नियमादभिजायते । स तस्य विषयः साध्यो नान्यः पक्षोस्तु जातुचित् ॥ ३८९॥
तिस कारण जहां अविनाभाव नियमके अनुसार साधनसे साध्यका बोध प्रकृष्ट उत्पन्न हो जाता है, वह साध्य उस अविनाभावी हेतुका ज्ञेय विषय है। उससे न्यारा पक्ष कदाचित् भी नहीं होवेगा, यह समझे रहो।
तदेवं शक्यत्वादिविशेषणसाध्यसाधनाय कालापेक्षत्वेन व्यवस्थापिते अन्यथानुपपत्येकलक्षणे साधने च प्रकृतमभिनिबोधलक्षणं व्यवस्थितं भवति ।
तिस कारण यहांतक हेतु, साध्य, और पक्षका इस प्रकार विशेष विचार कर दिया गया है। शक्यपन आदि विशेषणोंसे युक्त हो रहे साध्यको साधने के लिये प्रयोगकालकी अपेक्षा करके अन्यथानुपपत्ति ही एक लक्षणवाले हेतुकी व्यवस्था करा चुकनेपर यह प्रकरणप्राप्त अनुपानस्वरूप अमिनिबोधका लक्षण करना व्यवस्थित हो जाता है । अर्थात् इस प्रकरणमें सामान्य मतिज्ञानको