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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भूत प्रमाणोंकी सिद्धि नहीं हो सकी है। नैयायिक, शून्यवादी, इन दोनोंके यहां भी अपने अपने साध्यके साथ प्रमाणपना तो प्रसिद्ध नहीं हुआ है अर्थात् तिस इष्टसाधनके द्वारा नैयायिक प्रमाणोंकी सिद्धि कर लेते हैं । उसी इंष्ट साधनसे शून्यवादी अपने प्रमाणशून्यपनकी सिद्धि कर लेते हैं। प्रत्युत प्रमाणको बनानेकी अपेक्षा प्रमाणका मिटा देना सरल कार्य है।
तदसंगतमिष्टस्य संविन्मात्रस्य साधनं । स्वयं प्रकाशनं ध्वस्तव्यभिचारं हि सुस्थितं ॥ ३७८ ॥ स्वसंवेदनमध्यक्षं वादिनो मानमंजसा । ततोन्येषां प्रमाणानामस्तित्वस्य व्यवस्थितिः ॥ ३७९ ॥
आचार्य कहते हैं कि वह शून्यवादी बौद्धोंका कहना तो पूर्वापरसंगतिसे रहित है। क्योंकि उनको इष्ट हो रहे अकेले शुद्धसंवेदनका ही साधन करना उन्हें अभिप्रेत है, जो कि स्वयं प्रकाशित हो रहा और व्यभिचार दोषोंसे विनिर्मुक्त हो रहा ही भले प्रकार स्थित माना गया है। तब तो स्वसंवेदनामका प्रत्यक्ष ही वादीके यहां प्रमाण शीघ्र सिद्ध हो गया। तिस कारण अन्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणोंके अस्तित्वकी भी व्यवस्था हो जाती है। कुछ भी प्रमाण, प्रमेय, स्व, पर, वादी, प्रतिवादी, स्वपक्षसाधन, परपक्षदूषण, सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान, आदिको जो नहीं मानता है, वह तो स्वयं भी नहीं है । अतः इष्टतत्त्वके साधनेसे प्रमाणोंकी सिद्धिका आपादन करना समुचित ही है।
नन्विष्टसाधनं धर्म प्रमाणौरपरैर्युतम् । तदिष्टसाधनत्वस्येतरथानुपपत्तितः॥ ३८०॥ एवं प्रयोगतः सिद्धिः प्रमाणानामनाकुलम् ।
तत्सत्ता नैव साध्या स्यात्सर्वत्रेति परे विदुः ॥ ३८१ ॥
यहां पुनः प्रतिवादीका अनुनय है कि जिन शून्यवादियोंके यहां इष्टसाधन हेतुकी प्रसिद्धि नहीं है, उनके प्रति इष्टसाधनको धर्मी बनाकर फिर दूसरे प्रमाणोंसे युक्त होना साधोगे, अन्यथा उस इष्टसाधनपनकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। यदि इस प्रकारके अनुमान प्रयोग करनेसे ही प्रमाणोंकी आकुलतारहित होकर सिद्धि मानली जायगी तब तो सभी स्थानोंपर उन प्रमाणोंकी सत्ताको नहीं साध्य करना चाहिये । इस प्रकार दूसरे विद्वान् जान रहे हैं।
यतोभयं तदेवेषां स्वयमग्रे व्यवस्थितम् । हेतोरनन्वयत्वस्य प्रसंजनमसंशयं ॥ ३८२॥ .
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