________________
तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
साधन और साध्यके व्याप्य व्यापकभावके सिद्ध हो जानेपर व्याप्यका स्वीकार करना व्यापकके स्वीकार करनेसे अविनामाव रखता है । इस प्रकार व्यापकका प्रदर्शन करा देना केवल इतना ही फल उस प्रसंगहेतुका अच्छा कहा गया है। कोई परोक्ष नये पदार्थकी ज्ञप्ति नहीं कराई जाती है। अर्थात् जो भोला जीव शीशोपनसे वृक्षपनको अधिक देशवर्ती व्यापक मानता है, किन्तु सन्मुख देशमें शीशोंको खडा हुआ देख रहा है, फिर भी उसमें वृक्षपनेका व्यवहार नहीं कर रहा है, उस भद्र जीवको वृक्षपनका व्यवहार करादेना ही प्रसंगसाधन हेतुका फल है।
अथ निःशेषशून्यत्ववादिनं प्रति तार्किकैः। विरोधोद्भावनं खेष्टे विधीयतेति संमतं ॥ ३७४ ॥ तदप्रमाणकं तावदकिंचित्करमीक्ष्यते । । सप्रमाणकता तस्य क प्रमाणाप्रसाधने ॥ ३७५॥
अब आचार्य इस बातको कहते हैं कि संपूर्ण पदार्थोंका शून्यपना कहनेकी टेववाले वादीके प्रति नैयायिकोंद्वारा जो अपने इष्ट विषयमें विरोधका उत्थापन किया जाता है, यह तो हमको भले प्रकार सम्मत है । सबसे प्रथम वह शून्यवाद प्रमाणोंसे नहीं सिद्ध होता हुआ अकिंचित्कर दीख रहा है। जब कि " सर्व शून्यं शून्यं " इस मंतव्यकी प्रमाणसे प्रकृष्टसिद्धि नहीं होगी तबतक उस शून्यवादको प्रामाणिकता कहां ठहर सकती है ! भावार्थ-शून्यवादीके यहां पहिले ही व्यवहारिकरूपसे प्रमाणोंकी सिद्धि हो चुकनेपर नैयायिकोंने इष्टसाधनहेतु द्वारा परमार्थरूपसे प्रमाणोंको सधाया है। यदि शून्यवादी प्रथमसे कथमपि प्रमाणोंको न मानते होते तो अपने अभीष्ट शून्यतत्त्वकी सिद्धि कैसे करलेते ! अतः नैयायिकोंका यह विरोध उठाना उपयुक्त है कि शून्यकी सिद्धि कर रहे हो और उपायतत्त्व प्रमाणोंको वास्तविक नहीं मान रहे हो, यह बडी पोल है।
'नन्विष्टसाधनात् संति प्रमाणानीति भाषणे । समः पर्यनुयोगोयं प्रमा शून्यत्ववादिनः ॥ ३७६ ॥ तदिष्टसाधनं तावदप्रमाणमसाधनम् । स्वसाध्येन प्रमाणं तु न प्रसिद्ध द्वयोरपि ॥ ३७७ ॥
यहां शून्यवादीकी ओरसे शंका है कि इष्टकी सिद्धि की जा रही है। इससे सिद्ध होता है कि उसके उपाय प्रमाणपदार्थ जगदमें है, इस प्रकार कथन करनेपर नैयायिकोंके ऊपर भी प्रमाणका शून्यपना माननेवाले वादीकी ओरसे यही सकटाक्ष प्रश्न उठानारूप पर्यनुयोग समानरूपसे लागू होगा। क्योंकि शून्यवादियोंको तो इष्टका साधन प्रमाणशून्यपना है। अतः इष्टसाधनद्वारा वस्तु