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तत्वार्थचिन्तामणिः
परप्रसिद्धितस्तेषां धर्मित्वं हेतुधर्मवत् ।
ध्रुवं तेषां स्वतंत्रस्य साधनस्य निषेधकम् ।। ३७१ ॥ प्रसंगसाधनं वेच्छेत्तत्र धर्मिग्रहः कुतः । इति धर्मिण्यसिद्धेपि साधनं मतमेव च ॥
३७२ ॥
पक्ष धर्म हो रहे हेतु के समान उन धर्मियों ( सम्पूर्ण पदार्थ ) की अन्यवादियों के यहां प्रसिद्ध होने के कारण प्रसिद्धि हो जानेसे उनको धर्मीपना दृढरूपसे निश्चित है । आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाले उन बौद्धों के यहां स्वतंत्र नामके साधनका निषेध करनेवाला यह प्रसंग साधन इष्ट किया जावेगा ? किन्तु वहां भी धर्मीका ग्रहण कैसे होगा, बताओ ? भावार्थ — बाधा देनेवाले अनुमानोंके सिवाय प्रकृत साध्यको साधनेवाले हेतु दो प्रकार के होते हैं । एक स्वतंत्रसाधन है । दूसरा प्रसंगसाधन है । पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, जहां विद्यमान रहते हैं, वहांपर व्याप्तिस्मरण कराकर साध्यको साधनेवाला हेतु स्वतंत्रसाधन कहा जाता है। और परकी दृष्टिसे ही उसपर वादीको अनिष्टका आपादन करा देनेवाला हेतु प्रसंगसाधन कहलाता है । पर्वत वह्नियुक्त है, धूम होनेसे, या शद्ब परिणामी है, कृतक होनेसे, इत्यादि हेतु अपने अपने साध्यको साधने में स्वतंत्र हैं । प्रसंग साधन हेतु से कोई परोक्षपदार्थ नहीं साधा जाता है । केवल थोडीसी अज्ञाननिवृत्ति करा दी जाती है | न्यारे न्यारे सौ रुपयोंकी सत्ताको माननेवाला गँवार यदि पचास रुपयोंकी उनमें सत्ता नहीं मानता है, किन्तु सौ रुपयोंका व्याप्यपना और पचास रुपयोंका व्यापकपना स्वीकार किये हुये है । उस ग्रामीण के प्रति प्रसंगसाधन द्वारा यह समझाया जाता है कि फुटकर सौ रुपयोंका सद्भाव मानना पचास रुपये हुये विना असिद्ध है । इसी प्रकार तीन वीसीको नहीं माननेवाला यदि साठको माम रहा है, तो उसके लिये तीन वीसीका भी ज्ञान प्रसंगद्वारा करा दिया जाता है। कभी कभी विद्वान् पुरुषों को भी विप्रलम्भ हो जाता है कि सौ रुपये तो हैं किन्तु पचास हैं या नहीं, तब दूसरा ज्ञान उठाकर पचासका ज्ञान किया जाता है । एक वस्तुका निर्णय करनेके लिये न जाने पूर्व में कितने ज्ञान शीघ्रतासे हो जाते हैं। तब कहीं पीछेसे एक पक्का ज्ञान होता है । " साध्य साधनयोर्व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको व्यापकाभावो वा व्याप्याभावाविनाभावीत्येतत्प्रदर्श्यते येन तत्प्रसंगसाधनं " इस प्रकार धर्मीका ग्रहण करना कठिन है । तभी तो सिद्धान्त में धर्मी अप्रसिद्ध होनेपर भी सद्धेतु मान लिया ही गया है । अतः साध्य प्रसिद्ध होनेका आग्रह करना प्रशस्त नहीं है ।
पक्ष ) के
व्याप्यव्यापकभावे हि सिद्धे साधनसाध्ययोः । प्रसंगसाधनं प्रोक्तं तत्प्रदर्शनमात्रकं ॥ ३७३ ॥
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