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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
अव्युत्पन्नविपर्यस्ताप्रतिपाद्यत्वनिश्चये । प्रतिपाद्यः कथं नाम दुष्टोज्ञः स्वसुतो जनैः ॥ ३६२ ॥
यदि व्युत्पत्तिरहित मूर्ख और मिध्यादृष्टी, विपरीत ज्ञानी जीवोंको नहीं प्रतिपादन करने योग्यपनेका निर्णय कर दिया जायगा तो बताओ प्रचंड, दुष्ट, और वज्रमूर्ख अपना कोई लडका भला हितैषी गुरुजनोंकरके समझाने योग्य कैसे होगा ? अर्थात् अज्ञानी और आग्रही जीवोंके लिये उपदेश देना यदि नहीं माना जायगा तो मातापिताओंकरके खिलाडी मूर्ख अपने लडकेको भी सीख नहीं देनी चाहिये । किन्तु सभी हितैषीजन अपने मूर्ख, हठी, बालक, बालिकाओंको उपदेश देकर हितमार्गपर लगाते हैं । तीर्थकर महाराजके समान सभी लडके पेटमेंसे ही सीखे सिखाये नहीं जन्मते है।
लौकिकस्याप्रबोध्यत्वे कथमस्तु परीक्षकः । प्रबोध्यस्तस्य यत्नेन क्रमतस्तत्त्वसंभवात् ॥ ३६३॥ प्रतिपाद्यस्ततस्त्रेधा पक्षस्तत्पतिपत्तये । संदिग्धादिः प्रयोक्तव्योऽप्रसिद्ध इति कीर्तनात् ॥ ३६४ ॥ .
संदिग्ध पुरुषको ही विद्वानों द्वारा समझाया जाना माननेवाले यदि यों कहें कि लौकिक विपर्यज्ञानी तो समझाने योग्य नहीं है। अर्थात् लोकमें ऐसा ही देखा गया है कि संदेह करनेवाले विनीतोंकी शंकाका समाधान तो कर दिया जाता है । मूर्ख और विपरीतज्ञानीको तो अनेक भद्र विद्वान् नहीं समझाते हैं । टाल देते हैं । इसपर हम जैनोंका यह कहना है कि यों तो परीक्षा करने. वाला ती कैसे समझाया जा सकेगा । तत्त्वोंकी अन्तःप्रविष्ट होकर परीक्षा करनेवाला तो कभी किसी विषयमें मूर्ख बन जाता है । किसी विषयमें विपरीत ज्ञानी हो रहा है,उस परीक्षकको तो क्रमसे ही यत्न करके तत्वोंकी ज्ञप्ति कराना संभवती है। जो ठोस वक्ता विद्वान् हैं, वे तो परोपकारिणी बुद्धिसे सभी प्रकारके मिथ्याज्ञानी जीवोंको सहर्ष उत्साहसहित समझा देते हैं। सभी हितैषी प्रतिपादकोंको संसारमें अज्ञानी और विपरीतज्ञानी जीवोंके समझानेके अधिक प्रकरण प्राप्त हुये हैं । श्री अहंत महाराज तथा उनके अनुसार चलनेवाले श्री आचार्य महाराज अथवा अनेक विद्वान पुरुष सर्वदासे अज्ञानी और मिथ्यादृष्टियोंको जितनी संख्या समझाते चले आ रहे हैं, सम्भवतः उतनी संख्या संदिग्य जीवोंके समझानेकी नहीं है । तिस कारण यह फल बलात् सिद्ध हो जाता है कि संदिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न ये तीनों ही प्रकारके जीव विद्वानों द्वारा प्रतिपादन करने योग्य हैं । अन्यथा वे परीक्षक कैसे हो सकेंगे ! केवल संदिग्ध भोले जीवोंको समझा देनेसे ही परीक्षकपनका प्रमाणपत्र नहीं मिल जाता है । अतः उन तीनोंको प्रतिपत्ति करानेके लिये संदिग्व, विपर्यस्त, और अज्ञात हो