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तत्वार्थचिन्तामणिः
रहा अप्रसिद्ध पक्ष वादीके द्वारा प्रयुक्त करना चाहिये। इस प्रकार साध्यके विशेषणोंका सफलता प्रतिपादक कीर्तन करते हुये व्याख्यान किया है ।
सुप्रसिद्धश्च विक्षिप्तः पक्षोऽकिंचित्करत्वतः ।
तत्र प्रवर्तमानस्य साधनस्य स्वरूपवत् ॥ ३६५ ॥ समारोपे तु पक्षत्वं साधनेपि न वार्यते । स्वरूपेणैव निर्दिश्यस्तथा सति भवत्यसौ ॥ ३६६ ॥
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प्रकार प्रसिद्ध हो रहे पक्ष क्योंकि वह अकिंचित्कर है ।
वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति, या बालक स्त्रियोंतक में भले ( प्रतिज्ञा ) को साध्यकोटिमें रखना तो निरस्त कर दिया गया है। अर्थात् अग्नि उष्ण है, जल प्यासको बुझाता है, पत्थर भारी है, इत्यादि प्रसिद्ध हो रहे विषय साध्य नहीं बनाये जाते हैं। उन प्रसिद्ध साध्योंके साधनेमें प्रवर्त रहे हेतुको कुछ भी कार्य नहीं. करनेपनका दोष आता है । जैसे कि कोई हेतु अपने स्वयं स्वरूप [ डील ] को साधने में अकिंचित्र है । हां, यदि उस साध्यमें कोई संशय, विपर्यय, अज्ञाननामका समारोप उपस्थित हो जाय, तब तो उस साध्यका पक्षपना नहीं निवारण किया जाता है। हेतुके शरीर में भी यदि समारोप हो जाय तो उस हेतुको साध्यकोटिपर लाकर अन्य हेतुओंसे पक्ष बना लिया जाता है । कई अनुमान मालाओं में ऐसा देखा गया है, जैसे कि अर्हत भगवान् सर्वज्ञ हैं [ प्रतिज्ञा ] निर्दोष होनेसे [ हेतु ] अईंत निर्दोष हैं [ प्रतिज्ञा दूसरी ] युक्ति और शास्त्रसे अविरोधी बोलनेवाले होनेसे [हेतु] अत युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्धभाषी हैं [ प्रतिज्ञा तीसरी ] क्योंकि उनके द्वारा कहे गये मोक्ष, मोक्षकारण, संसार, संसारकारण, तत्त्वों का प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे विरोध नहीं आता है [ हेतु] ये शास्त्रीय अनुमान हैं। लौकिक अनुमान यों समझना कि यहां उष्णता है, अग्नि होनेसे १ यहां अग्नि है, धूम होनेसे २ यहां धूम है, कंठ नेत्र आदिमें विक्षेप करनेवाला होनेसे ३ मेरे कंठ और आंखोंमें खांसी आंसू आदि विकार हैं, क्योंकि उनसे उत्पन्न हुई पीडाका अनुभव हो रहा है, ४ । अतः तिस प्रकार संदिग्ध, विपर्यस्त, अज्ञात होता संता ही वह साध्य अपने स्वकीय रूपकर के ही निर्देश करने योग्य होता है ।
जिज्ञासितविशेषस्तु धर्मी यैः पक्ष इष्यते ।
तेषां सन्ति प्रमाणानि स्वेष्टसाधनतः कथं ॥ ३६७ ॥ धर्मिण्यसिद्धरूपेपि हेतुर्गमक इष्यते । अन्यथानुपपन्नत्वं सिद्धं सद्भिरसंशयं ॥ ३६८ ॥