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________________ ..तस्वार्थचिन्तामणिः यथाप्रवर्तमानस्य संदिग्धस्य प्रवर्त्तनम् । विधीयनुमानेन तथा किं न निषिध्यते ॥ ३५८ ॥ . अव्युत्पन्न विपर्यस्तमन सोप्यप्रवर्तनम् । परानुग्रहवृत्तीनामुपेक्षानुपपत्तितः ॥ ३५९ ॥ ३९५ उत्साह से नहीं प्रवर्त रहे संदिग्ध पुरुषकी अनुमानद्वारा निर्णीत साध्य में प्रवृत्ति करा दी जाती है। और उदास ( सुस्त ) पनेकी अप्रवृत्तिका निषेध कर दिया जाता है । उसी प्रकार अव्युत्पन्न और विपर्यस्त मनवाले जीवोंकी भी अप्रवृत्तिका निषेध अनुमानद्वारा क्यों न करा दिया जाय ? दूसरे जीवोंके अनुग्रह करनेमें सर्वदा प्रवृत्त हो रहे आचार्योंकी अज्ञानी और विपर्यय ज्ञानी जीवों के लिये उपेक्षा [ लापरवाही ] नहीं हो सकती है । अर्थात् आचार्य महाराज जैसे संदिग्ध जीवको यथार्थ निर्णीत विषयमें प्रवर्ता देते हैं, उसी प्रकार अज्ञानी और मिथ्याज्ञानीको भी यथार्थ वस्तु में लगा देते हैं । अतः अनुमानप्रमाणद्वारा तीनों समारोपोंका व्यवच्छेद होना मानना चाहिये । अविनेयिषु माध्यस्थ्यं न चैवं प्रतिहन्यते । रागद्वेषविहीनत्वं निर्गुणेषु हि तेषु नः ॥ ३६० ॥ स्वयं माध्यस्थ्यमालंब्य गुणदोषोपदेशना । कार्यातेोपि धीमद्भिस्तद्विनेयत्वसिद्धये ॥ ३६१ ॥ यहां कोई यों शंका करे कि अविनीत, मिथ्याज्ञानियोंको भी आचार्य महाराज यदि समझाकर सुमार्ग में प्रवर्त्ताते हैं, तब तो अविनीतों में माध्यस्थ भावना रखनेका उपदेश यों बिगडता है । तत्त्वार्थ सूत्रकारने " मैत्रीप्रमोद " आदि सूत्रकरके आग्रही, विपरीतज्ञानियोंके प्रति उपेक्षा ( माध्यस्थता ) भावनेका निर्देश किया है । इसपर हम जैन कहते हैं कि इस प्रकार अविनीतों में ( मध्यस्थता - ) मध्यस्थपना रखनेका प्रतिघात नहीं होता है । उपेक्षाका अर्थ गुणरहित उन दोषी, विपर्ययज्ञानियों में हमारे द्वारा रागद्वेष नहीं करना है । इमको स्वयं माध्यस्थभावनाका अवलम्ब लेकर उनके लिये भी बुद्धिमानोंकरके गुण और दोषोंका उपदेश कर देना चाहिये । तभी तो उन अविनीतोंको विनीतपना सिखाये जानेकी सिद्धि हो सकेगी । परोपकारियोंका कर्तव्य मूर्खको पंडित बनाना है । कुचारित्रबालोंको सच्चारित्रपर लाना है । अविनीतोंको विनय संपत्तिपर झुकाना है । जितने भी जीवोंने मोक्षलाभ किया है, वे पूर्वजन्मोंमें बडे अज्ञानी, कुचारित्री, विपरीत ज्ञानी थे। तभी तो आप्तवचनोंद्वारा उनका सुधारा हो सका है । पले पलायेको पाल देना उतना कठिन नहीं है, जितना कि अरक्षितका संरक्षण करना कठिन होता हुआ वीरोचित कार्य है । T
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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