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: तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
जाती है । तिस कारण यह कहनेके लिये युक्ति नहीं है कि तीन समारोपों से एक ही संशयका हेतु द्वारा निराकरण होता है । भावार्थ-साध्यका निर्णय हो जानेसे प्रतिपाद्यके समस्त संशय, विपर्यय, और अज्ञानोंका निवारण हो जाता है।
संशयो ह्यनुमानेन यथा विच्छिद्यते तथा।
अव्युत्पत्तिविपर्यासावन्यथा निर्णयः कथं ॥ ३५५॥
कारण कि जिस प्रकार अनुमान ज्ञानकरके संशयका विच्छेद करा दिया जाता है, तिस ही प्रकार अव्युत्पत्ति (अनध्यवसाय अज्ञान ) और विपर्ययका भी विच्छेद करा दिया जाता है। अन्यथा यानी संशयके दूर हो जानेपर भी विपर्यय और अज्ञानोंके टिके रहनेसे भला निर्णय हो गया कैसे कहा जा सकता है ! अतः प्रमाणज्ञानसे तीनों समारोपोंकी निवृत्ति होना मानना चाहिये ।
अव्युत्पन्नविपर्यस्तो नाचार्यमुपसर्पतः । कौवेदेव यथा तद्वत्संशयात्मापि कश्चन ।। ३५६ ॥ नावश्यं निर्णयाकांक्षा संदिग्धस्याप्यनर्थिनः । संदेहमात्रकास्थानात्स्वार्थसिद्धौ प्रवर्तनात् ॥ ३५७ ॥
यदि कोई यों कहे कि कोई कोई अज्ञानी और विपर्ययज्ञानी पुरुष तो यों ही प्रमाद या कोरी ऐंठमें बैठे रहते हैं । निर्णय करानेके लिये बहुज्ञानी आचार्य महाराजके पास उत्साहसहित होकर नहीं जाते हैं । किन्तु संशय रखनेवाला पुरुष निर्णय करानेके लिये विशेष ज्ञानीके निकट चावसे दौडता है । इसपर हम जैनोंका यह कहना है कि जैसे कोई कोई अज्ञानी, विपर्ययज्ञानी वस्तुका यथार्थ निर्णय करानेके लिये विद्वान् आचार्यके निकट नहीं जाते हैं, उन्हींके समान कोई संदेहवाला पुरुष भी तो प्रमादवश होता हुआ निर्णय करानेके लिये गुरुके निकट जाकर नहीं पूछता है। प्रत्येक असर्वज्ञको असंख्य पदार्थोंमें संशय बना रहता है । हां, अपनी इच्छा होने पर और संशय निवृत्त हो जानेकी योग्यता होनेपर किसी अभिलाषुक नीवकी प्रवृत्ति हो जाती है । संदिग्ध भी पुरुषको यदि प्रयोजन न होनेके कारण उस वस्तुकी अभिलाषा नहीं है, तो निर्णय करानेके लिये आवश्यकरूपसे आकांक्षा नहीं होती है। संदेहमात्रमें ही वह असंख्यकालतक बैठा रहता है । हां, यदि अपने किसी अर्थकी सिद्धि होती होय तब तो निर्णय करानेके लिये प्रवृत्ति करता है। मार्गमें जाते हुये या गम्भीर शास्त्रका अन्वेषण करते हुये अपरिमित संशय उपज बैठते हैं। किसका किससे निर्णय करे । कतिपय संशयोंका साधन मिलनेपर निवारण करालिया जाता है । शेष यों ही पडे सडते रहते हैं।