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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अपने अभीष्ट साध्यको प्रतिवादीके सन्मुख समीचीन हेतुओंसे साधता ही रहेगा। जिस समामें विद्वान् वादी, प्रतिवादी, सभाजन, दर्शक आदि बैठे हुये हैं, ऐसी दशामें भला वादी अन्ट सन्ट क्यों बकता फिरेगा। यह कोई गंवारोंका खिलवाड नहीं है । न कोई यों ही ठलुआ बैठा है। दूसरी बात यह है कि स्वार्थानुमानोंमें किये गये पक्षका तो उस इष्टपनेकरके निश्चयका विचार कर लिया गया है, जैसे कि स्वयं ही दूरवर्ती धूमको देखकर अभीष्ट अग्निका अनुमान कर लिया जाता है।
परार्थेष्वनुमानेषु परो बोधयितुं स्वयम् । किं नेष्टस्येह साध्यत्वं विशेषानभिधानतः ॥ ३५१ ॥
और दूसरे प्रतिपायोंके लिये किये गये अनुमानोंमें तो दूसरा प्रतिपाद्य ही स्वयं समझानेके लिये योग्य होता है । जो वादीको इष्ट है वही तो प्रतिपाद्यको समझाया जावेगा, जैसे कि भूषणोंको वेचनेवाला सर्राफ ग्राहकको अपने निकटवर्ती भूषण मोल लेनेके लिये समझाता है। अतः यहां स्वार्थ अनुमान परार्थअनुमान इन विशेषोंके नहीं कथन करनेसे सामान्यकरके इष्टको साध्यपना क्यों नहीं अभीष्ट किया जाता है !
इष्टः साधयितुं साध्यः स्वपरप्रतिपत्तये । इति व्याख्यानतो युक्तमभिप्रेतविशेषणं ।। ३५२ ॥
जो वादीको अभीष्ट हो रहा है, वही अपने और दूसरेकी प्रतिपत्तिके अर्थ साधने के लिये साध्य मानना चाहिये, इस प्रकार व्याख्यान करनेसे साध्यका विशेषण अभिप्रेत ( इष्ट ) लगाना युक्त है। यहांतक साध्यके शक्य और अभिप्रेत इन दो विशेषणोंका विचार कर दिया गया है। अब तीसरे अप्रसिद्ध विशेषणको सफलताको दिखलाते हैं।
अप्रसिद्धं तथा साध्यमित्यनेनाभिधीयते । तस्यारेका विपर्यासाव्युत्पचिविषयात्मता ॥ ३५३ ॥ तस्य तद्वयवच्छेदत्वात्सिद्धिरर्थस्य तत्त्वतः।
ततो न युज्यते वक्तुं व्यस्तो हेतोरपाश्रयः ॥ ३५४ ॥
तथा वादीके द्वारा कहा गया साध्य .प्रतिवादी या प्रतिपाद्य-श्रोताओंको अप्रसिद्ध होमा चाहिये । अतः इस अप्रसिद्ध विशेषणकरके यह कहा जाता है कि वह साध्य श्रोताओंके संशय, विपर्यय, और अज्ञानका विषयस्वरूप हो रहा है । वादीके द्वारा साध्यका ज्ञान करादेने पर श्रोताओंके उन संशय, विपर्यय, अज्ञानोंका व्यवच्छेद हो जानेसे अर्थकी यथार्यरूपसे सिद्धि हो
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