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तत्वार्थोकवार्तिके
अथवा अनुक्क भी होय यदि वादीको स्वयं इष्ट है, वह तो यथार्थरूपसे साध्य हो जावेगा। हां, जो वादीको इष्ट नहीं है, वह कैसे भी साध्य नहीं हो सकता है। क्योंकि अतिप्रसंगका परिहार नहीं किया जा सकता है अर्थात् मीमांसकोंको शब्दका क्षणिकपना और जैनोंको या बौद्धोंको आत्माका कूटस्थपना भी साध्य करनेके लिये बाध्य होना पड़ेगा, जो कि इष्ट नहीं है।
ननु नेच्छति वादीह साध्यं साधयितुं स्वयम् । प्रसिद्धस्यान्यसंवित्तिकारणापेक्ष्य वर्तनात् ॥ ३४७ ॥ प्रतिवाद्यपि तस्यैतनिराकृतिपरत्वतः । सभ्या नोभयसिद्धान्तवेदिनोऽपक्षपातिनः ॥ ३४८ ॥ इत्ययुक्तमवक्तव्यमभिप्रेतविशेषणम् । जिज्ञासितविशेषत्वमिवान्ये संप्रचक्षते ॥ ३४९ ॥
यहां शंका है कि वादी स्वयं तो साध्यको साधने के लिये इच्छा नहीं करता है। प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकी अन्यको सम्बित्ति करादेनेकी अपेक्षासे वादी प्रवर्त रहा है और प्रतिवादी भी उस साध्यके इस प्रकरण प्राप्त निराकरणको करनेमें तत्पर हो रहा है । निकटमें बैठे हुए समाके जन तो पक्षपातरहित हैं और वादी प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्तोंको जाननेवाले नहीं हैं। इस कारण साध्यके लक्षणमें अभिप्रेत यह विषेषण लगाना अयुक्त है। जैनोंको साध्य इष्ट नहीं कहना चाहिये । जैसे कि जाननेकी इच्छाका विषयपना यह साध्यका विशेषण नहीं कहा जाता है अर्थात् वादीकी अपेक्षासे यदि साध्यका इष्ट विशेषण लगाया जाता है, तो प्रतिवादीकी अपेक्षासे साध्यका विशेषण जिज्ञासितपना भी लगाना चाहिये । क्योंकि प्रतिवादीको जिसकी जिज्ञासा होगी उस विषयका प्रतिपादन वादी करता है। यदि जैन यों कहें कि प्रतिवादी तो किसी तत्त्वकी जिज्ञासा नहीं करता है। वह तो खण्डन करनेके लिये आवेशयुक्त होकर संनद्ध हो रहा है, तब तो वादीकी ओरसे भी कुछ कहे जाना मान लिया जाय, इष्ट विशेषण लगाना व्यर्थ है । सभ्य पुरुषोंमें बहुभाग विनोद चाहनेवाले होते हैं । वे इष्ट और जिज्ञासितकी ओर नहीं दूंकते हैं । इस प्रकार कोई अन्य शंकाकार आटोपसहित बखान रहे हैं। . तदसद्वादिनेष्टस्य साध्यत्वाप्रतिघातितः ।
खार्थानुमासु पक्षस्य तनिश्चयविवेकतः ॥ ३५० ॥
आचार्य कहते हैं कि उनका वह कहना सत्य नहीं है । क्योंकि वादीद्वारा इष्ट हो रहे धर्मके साध्यपनका प्रतिघात नहीं किया जा सकता है। भले ही प्रतिवादी खण्डन करे किन्तु बादी