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तत्रार्थ लोकवार्तिके
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है । और विशेषभेदोंकी अपेक्षा करनेपर अतिसंक्षेपसे दो प्रकार है । वे दो भेद उपलब्धि, अनुपलन्धि हैं । तथा संक्षेपसे पूर्ववत् आदिके साथ उपलब्धि अनुपलब्धिको जोडकर छह प्रकारका हेतु है । एवम् विस्तारसे अनेक भेद हो सकते हैं।
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षड्विधो हेतुः कुतो न निवार्यत इत्याहः
नैयायिक और जैनोंके अर्द्धसम्मेलन अनुसार मान लिया गया छह प्रकारका हेतु क्यों नहीं निवारित किया जाता है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं ।
केवलान्वयिसंयोगी - वीतभूतादिभेदतः । विनिर्णीताविनाभावहेतूनामत्र संग्रहात् ॥
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केवलान्वयी आदिक, संयोगी आदिक, वीत आदिक, भूत आदिक, भेदोंसे मान लिये गये सभी हेतुओं का इन छह हेतुओंमें संग्रह हो जाता है । किन्तु उन केवलान्वयी आदिकोंका अपने साध्य के साथ अविनाभाव विशेषरूप से निर्णीत हो चुका रहना चाहिये अर्थात् जिन हेतुओंका अपने साध्य के साथ अविनाभावरूप - नियम निश्चित हो रहा है, वे वीत आदिक कोई भी हेतु होंय इन दो, या छइ भेदोंमें ही गर्भित हो जाते हैं। जैसे कि मनुष्य आयुका उदय होनेसे लंगडे, अंधे, चमार, चाण्डाल, सम्मूर्च्छन, भोगभूमियां नर, लडकियां, वृद्धायें, हीजडा, ये सब भेद मनुष्यों में अन्तर्भूत हो जाते हैं ।
न हि केवलान्वयिकेवलव्यतिरेक्यन्वयव्यतिरेकिणः संयोगिसमवायिविरोधिनो वा बीतावीततदुभयस्वभावा चाभूतादयो वा कार्यकारणानुभयोपलंभानतिक्रामं नियतो नियतहेतुभ्योन्ये भवेयुरविनाभावनियमलक्षणयोगिनां तेषां तत्रैवांतर्भवन्मदिति प्रकृतमुपसंहरन्नाह ।
केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी और संयोगी, समवायी, विरोधी, अथवा वीत, अवीत, उन वीतावीत दोनों स्वभाववाले तथा भूत, अभूत, भूताभूत ये माने गये हेतुओंके भेद ( कर्ता ) कार्य, कारण, अकार्यकारण उपलब्धियोंका अतिक्रमण नहीं करते हैं, जिससे कि हमारे नियम युक्त हो रहे हेतुओंसे न्यारे हो जाते । अविनाभाव नामके नियमरूप लक्षण से युक्त हो रहे
न केवलान्वयी आदिकों का उन पूर्ववत् आदिमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। अर्थात् " पूर्ववत्कारणात्कार्येऽनुमानमनुमन्यते " इत्यादि दो कारिकाओं द्वारा पूर्ववत् शेषवत्, सामान्यतो दृष्टका व्याख्यान जो कारण, कार्य और अकार्यकारण किया गया है, तदनुसार इन कारण हेतु आदिमें ही सम्पूर्ण केवलान्वयी, भूत, आदिकोंका अन्तर्भाव हो जाता है। आवश्यकता ( शर्त ) यह है कि उन हेतुओं में अविनाभावलक्षण घटित होना चाहिये। इस प्रकार प्रकरणप्राप्त व्याख्यानका उपसंहार करते हुये आचार्य महाराज अंतिम निर्णय कहते हैं कि