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अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं साधनं ततः।
सूक्तं साध्यं विना सद्भिः शक्यत्वादिविशेषणं ॥ ३३६ ॥ तिस कारण अन्यथानुपपत्ति ही है एक लक्षण जिसका, ऐसा समीचीन हेतु होता है। साधनेके लिये शक्यपना और षादीको अभीष्ट होनापन तथा प्रतिवादीको अप्रसिद्ध होनापन इन तीन विशेषणोंसे युक्त हो रहे साध्यके विना जो हेतु नहीं रहता है, वह सज्जनों करके समीचीन हेतु कहा गया है । अथवा अन्यथानुपपत्तिनामक एक ही लक्षणसे युक्त समीचीन हेतु होता है । और शक्यपन, अभिप्रेतपन, अप्रसिद्धपन, इन तीन विशेषणोंसे युक्त साध्य होता है। यों सज्जन विद्वानों करके बहुत अच्छा कहा जा चुका है। ___ एवं हि यैरुक्तं " साध्यं शक्यमभिप्रेतममसिदं ततो परं। साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः" इति तैः सूक्तमेव, अन्पयामुपपत्त्येक क्षणसाधनविषयस्य साध्यत्वप्रतीतेस्तदविषयस्य प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य सापयितुमशक्यस्य मसिदस्यानभिप्रेतस्य वा साध्याभासत्वनिर्णयात् । तत्र हि
तब तो जिन वादियोंने इस प्रकार कहा था कि साधन करसकनेके योग्य और वादीको इष्ट हो रहा तथा प्रतिवादी या तटस्थ पुरुषोंको विवादापन होकर असिद्ध हो रहा धर्म साध्य होता है। उससे मिनधर्म साध्याभास कहा जाता है। जो कि विरुद्ध, बाधित, आदि हेतुओं (हेत्वाभासों) द्वारा कहा गया है । समीचीन साधनके विषय नहीं होनेसे वे अशक्य, अनभिप्रेत और प्रसिद्ध हो रहे धर्म साध्याभास कहे जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो उन वादियोंने बहुत ही अच्छा कहा था। उनकी विद्वत्ताकी जितनी भी प्रशंसा की जाय थोडी है। क्योंकि अन्यथानुपपत्ति नामक एक लक्षणवाले हेतु द्वारा साधेगये विषयको साध्यपना प्रतीत हो रहा है । उस अविनाभावी हेतुका अविषय साध्य नहीं होता है । जो कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे विरुद्ध है। इस ही कारण जो साध्य करनेके लिये अशक्य है, और जन समुदायमें प्रसिद्ध हो रहा है, अथवा जो बादीको अभीष्ट नहीं है, क्योंकि सन्मुख बैठे हुये पुरुषोंको समझाने के लिये वादीकी ही इच्छा होती है, ऐसे बाधित, प्रसिद्ध, अनिष्ट, होरहे धर्मको साध्याभासपनेका निर्णय हो रहा है। साध्यके लक्षण हो रहे उन तीन विशेषणोंमें यों व्यवस्था है । कारण कि
शक्यं साधयितुं साध्यमित्यनेन निराकृतः ।
प्रत्यक्षादिप्रमाणे पक्ष इत्येतदास्थितम् ॥ ३३७ ॥
इस प्रकार साधनेके लिये शक्य जो होगा वह साध्य है। इस शक्य विशेषणकरके प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे निराकृत कर दिया गया. पक्ष नहीं होना चाहिये, यह सिद्धान्त व्यवस्थित किया