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तत्त्वीर्यश्लोकवार्तिके
प्रकारके ही हेतु प्रयुक्त किये गये हैं । गौण और मुख्य रूपसे विधि और निषेध दोनोंको साधनेवाले इन दो हेतुओंमें ही करोडो, असंख्यों, भेदोंका गर्भ हो जाता है। फिर भी इनका बडा पेट बचा रहता है।
ननु च कार्यस्वभावानुपलब्धिभिः सर्वहेतूनां संग्रहो माभूत सहचरादीनां तत्रान्तर्भावायतुमशक्तेः। पूर्ववदादिभिस्तु भवत्येव, विधौ निषेधे च पूर्ववतः परिशेषानुमानस्य सामान्यतो दृष्टस्य च प्रवृत्याविरोधात्सहचरादीनामपि तत्रांतर्भावयितुं शक्यत्वात् ते हि पूर्वबदादिलक्षणयोगमनतिकामंतो न ततो भिद्यत इति कश्चित् । सोपि यदि पूर्ववदादीनां साध्याविरुद्धानामुपलब्धिं विधौ प्रयुंजीत निषेध्यविरुद्धानां च प्रतिषेधे निषेध्यखभावकारणादीनां त्वनुपलब्धि तदा कथमुपलब्ध्यनुपलब्धिभ्यां सर्वहेतुसंग्रहं नेच्छेत् ।
__ नैयायिक शंका करते हैं कि बौद्धों द्वारा माने गये कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि हेतुओंकरके भले ही संपूर्ण हेतुओंका संग्रह नहीं होवे। क्योंकि सहचर, पूर्वचर, आदिकोंका उन तीनमें अंतर्भाव करनेके लिये सामर्थ्य नहीं है । किन्तु पूर्ववत् आदि भेदोंकरके तो सब हेतुओंका संग्रह हो ही जाता है। देखिये, विधि और निषेधको साध्य करनेमें पूर्ववत् हेतुकी और प्रसंग प्राप्तोंका निषेध किये जा चुकनेपर परिशेषमें अवशिष्ट रहे का अनुमान करानेवाले शेषवत् हेतुकी तथा सामान्यतो दृष्ट हेतुकी प्रवृत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं आता है । सहचर, पूर्वचर, आदिकोंका भी उन पूर्ववत् आदिकोंमें अन्तर्भाव किया जा सकता है । कारण कि वे सहचर आदिक हेतु पूर्ववत् आदिके लक्षणके सम्बन्धको नहीं अतिक्रमण करते हुये उन पूर्ववत् आदिकोंसे भिन्न नहीं हो रहे हैं । इस प्रकार कोई अक्षपादका अनुयायी कह रहा है । अब आचार्य कहते हैं कि वह नैयायिक भी यदि साध्यसे अविरुद्ध हो रहे पूर्ववत् आदिकोंकी उपलब्धिको विधि साधनेमें प्रयोग करेगा और निषेध्यसे विरुद्ध हो रहे पूर्ववत् आदिकोंकी उपलब्धिको प्रतिषेध साधनेमें प्रयुक्त करेगा तथा निषेध करने योग्य स्वभाव, कारण, आदिकोंकी अनुपलब्धिको विधि और निषेधको साधने में प्रयुक्त करेगा तब तो उपलब्धि और अनुपलब्धि हेतुओंकरके ही सब हेतुओंके संग्रहको क्यों नहीं इच्छेगा, अर्थात् विधि और निषेधको साधनेवाली उपलब्धि तथा विधि और निषेधको साधनेवाली अनुपल. ब्धिके ढंगपर ही संपूर्ण हेतुओंका संग्रह होना बनता है। अन्यथा नहीं।
पूर्ववत्कारणात्कार्येनुमानमनुमन्यते । शेषवद्कारणे कार्याद्विज्ञानं नियतस्थितेः ॥ ३३२ ॥ कार्यकारणनिर्मुक्तादात्साध्ये तथाविधे । भवेत्सामान्यतो दृष्टमिति व्याख्यानसंभवे ॥ ३३३ ॥