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तत्वार्यचिन्तामणिः
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तदारंभकाः पुद्गलविशेषाः तदनुपलब्धिदक्षिणश्रृंगस्यामापं साधयत्येव । सहचरव्यापककारणकारणानुपलब्धिस्तत्रैव श्रृंगारंभकपुद्गलसामान्याभावादिति प्रतिपचव्यानि ।
लोकमें प्रसिद्ध हो रहे तो अनुपलब्धिके उदाहरण फिर इस प्रकार है कि घोडेके ( पक्ष ) दक्षिण [ दाहिना ] सींग नहीं है (साध्य), सींगको बनानेवाले पुद्गलस्कन्धोंका अभाव होनेसे (हेतु)। भावार्थ-घोडेके शिरमें ऐसे स्कन्ध नहीं है, जो कि सीधे या डेरे सींगको बना सकें । यहां दक्षिणसींगका सहचारी डेरा सींग है। उसका व्यापक सामान्यरूपसे समी सींग हैं। उनके कारण उन सींगोंको बनानेवाले विशेषजातिके पुद्गल है, जो कि गाय, भैंस, आदिमें पाये जाते हैं। इनकी अनुपलब्धि हेतु दक्षिणसींगके अभावको साध ही देती है। अतः यह लोकमें प्रसिद्ध हो रही सहचरव्यापक-कारणकी अनुपलब्धि है। तथा सहचरव्यापककारणकारणकी अनुपलब्धि तो इस प्रकार समझना कि उस ही को साध्य करनेमें यानी अश्चके सीधी बोरका सींग नहीं है (प्रतिज्ञा) क्योंकि सींगको बनानेवाले पुद्गल सामान्यका अभाव है । अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे आहारवर्गणा द्वारा बनाये गये सींगके उपयोगी पुद्गलसामान्यका अश्वमें अभाव है। यहां दक्षिणश्रृंगका सहचारी वामश्रृंग है । उसका व्यापक श्रृंगसामान्य है। उसका कारण उसको बनानेवाले पुद्गलविशेष हैं। उनके भी कारण सामान्य पुद्गल है, जो कि सींगके उपयोगी हो रहे विशेषपुद्गलको बनाया करते हैं। उनकी अनुपलब्धि होनेसे घोडेके शिरमें दक्षिणसींगका अमाव साधा गया है। अतः यह सहचरव्यापक-कारण कारण अनुपलब्धि है । एवं देवदत्त शास्त्रीय परीक्षा उत्तीर्ण नहीं है ।क्योंकि प्रवेशिकामें उत्तीर्ण नहीं हो सका है । निषेध्य शास्त्रीय परीक्षाको कारण विशारद परीक्षा है, उस विशारदका भी कारण प्रवेशिका है । अतः यह कारणकारण अनुपलब्धि है । पूर्वचर, पूर्वचर, अनुपलब्धि भी यह हो सकती है । इसी ढंगसे इतर भी उदाहरण समझने चाहिये।
उपलब्ध्यनुपलब्धिभ्यामित्येवं सर्वहेतवः । संगृह्यन्ते न कार्यादित्रितयेन कथंचन ॥ ३३०॥ नापि पूर्ववदादीनां त्रितयेन निषेधने । साध्ये तस्यासमर्थत्वाद्विधा चैव प्रयुक्तितः ॥ ३३१ ॥
इस प्रकार पूर्वमें दिखलायी गयी उपलब्धियों और अनुपलब्धियोंकरके तो संपूर्ण हेतुओंका संग्रह कर लिया जाता है। किन्तु कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि, इस बौद्धोंके माने हुए हेतुत्रयसे कैसे भी सम्पूर्ण हेतुओंके भेद संग्रहीत नहीं हो पाते हैं । तथा पूर्ववत् , शेषवत्, सामान्यतो दृष्ट इन तीन हेतुओं करके भी सभी हेतुओंका संग्रह नहीं हो पाता है। क्योंकि निषेधको साध्य करनेमें वे पूर्वचर आदि तीनों भी असमर्थ हैं । इस कारण जैनसिद्धान्त अनुसार उपलब्धि और अनुपलब्धि ये दो 49