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________________ ૩૮૨ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके है, तथा स्थासका कारण छत्र है । अतः यह कारणकी परम्परासे अनुपलब्धि है । प्रन्थवृद्धि के भय से वार्त्तिकः ग्रन्थ में सभी उदाहरण नहीं दिये जासकते हैं। विद्वानोंकर के स्वयं ऊहा करलेनी चाहिये । सहचरव्यापककार्यानुपलब्धिर्यथा नास्त्यभव्ये सम्यग्विज्ञानं दर्शन मोहोपशमाद्यभावात् । सहचरव्यापककारणामुपलब्धिर्यथा तत्रैवाधः प्रवृत्तादिकरणका ललब्ध्याद्यभावात् । सहचरव्यापककारणव्यापकानुपलब्धिस्तत्रैव दर्शनमोहोपशमादित्वाभावादिति समयप्रसिद्धान्युदाहरणानि । सहचरव्यापकार्य - अनुपलब्धिका दृष्टांत तो इस प्रकार है कि अभव्यमें ( पक्ष ) समीचीन ज्ञान नहीं है [ साध्य ] दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षय, क्षयोपशम नहीं होनेसे [ हेतु ] यहां निषेध्य सम्यक्ज्ञानके सहचारी क्षयोपशमसम्यक्त्व आदि तीन सम्यग्दर्शन हैं । उनका व्यापक सम्यग्दर्शन हैं । उस सम्यग्दर्शनका कार्य भविष्यमें दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षयोपशम, क्षय, करना है। तथा सहचरव्यापक -- कारणकी अनुपलब्धिका दृष्टान्त तो इस प्रकार हैं कि तिसदीको साध्य करनेमें यांनी अभव्यमें सम्यग्ज्ञान नहीं हैं, क्योंकि अधः प्रवृत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, काललब्धि आदिका अभाव है । यहां निषेध्य सम्यग्ज्ञानके सहचारी क्षयोपशम आदि सम्यक्त्व हैं । उनका व्यापक सम्यग्दर्शन सामान्य है । उसके कारण अधःप्रवृत्तकरण, काललब्धि, आदि हैं। उनकी अनुपलब्धिसे सम्यग्ज्ञानका निषेध सिद्ध हो जाता है। अब सहचरव्यापककारण- व्यापककी अनुपलब्धिका उदाहरण सुनिये । तिस ही अभव्यमें सम्यग्ज्ञानके अभावको साध्य करनेपर दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम आदि भावोंके अभाव हेतुसे वह साधी जाती है । निषेध्य सम्यग्ज्ञानके सहचारी क्षयोपशम सम्यक्त्व आदि हैं । उनका व्यापक सम्यग्दर्शन है । उसके कारण अधःकरण आदिक हैं। उन करणत्रय, काललब्धि, आदिके व्यापक दर्शनमोह के उपशम आदिक हैं । उनका अभाव होनेसे अभव्यमें सम्यग्ज्ञानका निषेध साध दिया जाता है । इस प्रकार आप्तोपज्ञ शास्त्रोंके अनुसार अनेक उदाहरण प्रसिद्ध हो रहे हैं। चौइंद्रिय भोंरा, बर्र आदि जीवोंके कान नहीं हैं। क्योंकि कर्ण इंद्रिय आवरण कर्मके सर्वघातिस्पर्द्धकोंका क्षयोपशम नहीं है । अथवा मनुष्य आयु या तिर्यच आयु अथवा नस्क आयुको बांध चुका मनुष्य महाव्रतों और अणुव्रतोंको धारण नहीं कर सकता हैं, क्योंकि व्रतियोंके होनेवाले परिणामोंका अभाव है । नरकोंसे आकर जीव तीर्थकर हो सकते हैं । किन्तु नारायण, चक्रवर्त्ती, बलभद्र, नहीं हो सकते हैं । क्योंकि तिस जातिका पुण्य उनके पास नहीं है । इत्यादिक आत्माके परिणामोंके अनुसार 1 आर्षशास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । एक अविनाभावी तुसे अनेक अतीन्द्रिय पदार्थोके विधि या निषेध द्वितीयका अनुमान कर लिया जाता है । लोकप्रसिद्धानि पुनर्नाश्वस्य दक्षिणं श्रृंगं श्रृंगारंभकाभावादिति सहचरव्यापककारणानुपलब्धिः । दक्षिणश्रृंगसहचारिणो हि वामश्रृंगस्य व्यापकं श्रृंगमात्रं तस्य कारणं
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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