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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
अर्थक्रिया है । अर्थक्रियाके व्यापक क्रम और अक्रम हैं । तथा क्रम और अक्रमको भी व्यापनेवाला परिणामविशेष है । उसकी अनुपलब्धि है । अतः यह कार्यव्यापकव्यापक-अनुपलब्धि है।
कारणव्यापकादृष्टिः सांख्यादेर्नास्ति निर्वृतिः। . सदृष्टयादित्रयासिद्धेरियं पुनरुदाहृता ।। ३२२ ॥
कारणब्यापक-अनुपलब्धिका उदाहरण फिर इस प्रकार कहा गया समझो कि सांख्य, नैयायिक आदि प्रतिवादियोंके यहां ( पक्ष ) मोक्ष नहीं होती है ( साध्य ), सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनकी असिद्धि होनेसे ( हेतु )। यहां निषेध करने योग्य मोक्षका कारण मोक्षमार्गरूप परिणाम है, उसका व्यापक रत्नत्रय है, उसकी अनुपलब्धि है । अतः यह कारणव्यापकअनुपलब्धि है । पहिली कही हुई कारणव्यापकविरुद्ध-उपलब्धिसे इस अनुपलब्धिका ढंग निराला है।
कारणव्यापकव्यापि स्वभावानुपलंभनं । तत्रैव परिणामस्यासिद्धेरिति यथोच्यते ॥ ३२३ ॥ परिणामनिवृत्तौ हि तद्वयाप्तं विनिवर्तते । सदृष्टयादित्रयं मागं व्यापकं पूर्ववत्परम् ॥ ३२४ ॥
उस ही को साध्य करनेमें कारणके व्यापकसे व्यापक हो रहे स्वभावकी अनुपलब्धि तो इस दृष्टान्त द्वारा कही जाती है कि सांख्य आदिकोंके मतमें या सांख्य, नैयायिक, आदि विद्वानोंकी ( पक्ष ) मोक्ष सिद्ध नहीं हो पाती है, ( साध्य ), परिणाम विशेषकी असिद्धि होनेसे (हेतु)। यहां निषेध्य मोक्षका कारण मोक्षमार्गरूप परिणाम है । उसका व्यापक रत्नत्रय है। उसका भी व्यापक परिणाम होना है। जब सांख्य आदिकोंके यहां आत्मामें परिणाम नहीं बनते हैं, तो पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तर स्वभावका ग्रहण, और द्रव्यरूपसे या स्थूलपर्यायरूपसे रूपपरिणामकी निवृत्ति हो जानेपर उससे व्याप्त हो रहे रत्नत्रयकी तो अवश्य निवृत्ति हो जाती है। व्यापकके नहीं रहने पर व्याप्य तो नहीं ठहरपाता है। और सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयकी निवृत्तिसे मार्गकी तथा दूसरे व्यापककी पूर्वके समान निवृत्ति हो जाती है । अतः यह कारणव्यापकव्यापकस्वभावकी अनुपलब्धि है।
सहचारिफलादृष्टिर्मत्यज्ञानादि नास्ति मे । नास्तिक्याध्यवसानादेरभावादिति दर्शिता ॥ ३२५॥ नास्तिक्यपरिणामो हि फलं मिथ्यादृशः स्फुटम् । सहचारितया मत्यज्ञानादिवद्विपश्चिताम् ॥ ३२६ ॥