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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सैवमनुपलब्धि: पंचविधोक्ता श्रुतिप्राधान्यात् ।
इस प्रकार वह अनुपलब्धि अपने भेदप्रभेदोंकरके पांच प्रकारकी कह दी गई है। क्योंकि लोकमें और शास्त्रमें उक्त प्रकार प्रयोगोंके सुननेकी प्रधानता हो रही है। जो समीचीन प्रयोग अविनाभावके अनुसार हो रहे हैं, उनको सद्धेतुओंसे अनुमान द्वारा साध लिया जाता है।
नमु कारणव्यापकानुपलब्धयोपि श्रूयमाणाः संति । सत्यं । तास्त्ववांतर्भावमुपयांतीत्याह:
- यहां शंका है निषेध्य-साध्यअंशके कारणसे व्यापक हो रहे की अनुपलब्धि अथवा साध्य दल निषेध्यके व्यापकसे व्यापक हो रहे की अनुपलब्धि आदिक भी तो सुनी जा रही हैं। फिर उक्त ढंगसे पांच ही अनुपलब्धियां क्यों कहीं ! इसपर आचार्य कहते हैं कि भाई तुम ठीक कहते हो, पांच प्रकारोंके अतिरिक्त भी अनुपलब्धियां हैं । किन्तु वे सब इन पांचोंमें ही अंतर्भावको प्राप्त हो जाती हैं । इस बातको स्पष्ट कहकर दिखलाते हैं।
कारणव्यापकादृष्टिप्रमुखाश्चास्य दृष्टयः ।
तत्रांतभोवमायांति पारंपयोदनेकधा ॥ ३१६ ॥
इस निषेध्यसाध्यकी कारण, व्यापक, अनुपलब्धिको आदि , लेकरके जो अनुपलब्धियां देखी सुनी जा रही हैं, वे सब अनेक प्रकारकी उन पांचोंमें ही परम्परासे अंतर्भावको प्राप्त हो जाती हैं । कई उपलब्धियां भी तो उपलब्धिहेतुओंमें प्रविष्ट हो चुकी हैं । फिर अनुपलब्धिमें ही ऐसी कौनसी नयी बात आ पडी है।
काः पुनस्ता इत्याह:वे अंतर्भूत हो रही अनुपलब्धियां फिर कौन कौनसी हैं ! इस बातको स्पष्ट कहते हैं। प्राणादयो न संत्येव भस्मादिषु कदाचन । जीवत्वासिद्धितो हेतुव्यापकादृष्टिरीदृशी ॥ ३१७ ॥ क्वचिदात्मनि संसारप्रसूतिर्नास्ति कात्य॑तः।
सर्वकर्मोदयाभावादिति वा समुदाहृता ॥ ३१८ ॥
भस्म, डेल, कटोरा, आदिकों (पेक्ष) प्राण, नाडी चलना, आदिक कभी भी नहीं है। ( साध्य ), क्योंकि प्राणधारणरूप जीवपनेकी उनमें सिद्धि नहीं हो रही है। इस प्रकारकी हेतु व्यापक अनुपलब्धि है । निषेध करने योग्य प्राण आदिकोंका कारण शरीरसहितपना है। और शरीरसहितपनेका व्यापक जीवत्व है। अथवा यह भी उदाहण बहुत अच्छा दिया गया है कि किसी