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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
निषेधको साधनेमें दिये गये अनुपलब्धि हेतुका तीसरा भेद अकार्यकारणस्वरूप वस्तुका अनुपलम्म है । वह दो प्रकारका मान लिया गया है । निषेध करने योग्यके साथ तादात्म्य रखनेवालेकी अनुपलब्धि और निषेध्यके साथ तादात्म्य नहीं रखनेवालेकी अनुपलब्धि, ये दो भेद हैं।
तत्राभिन्नात्मनोः सिद्धिर्द्विविधा संप्रतीयते ।
खभावानुपलब्धिश्च व्यापकादृष्टिरेव च ॥३१२ ॥
तिन दो भेदों से पहिले निषेध्यसे अभिन्नस्वरूप हो रहे दो पदार्थोकी सिद्धि तो दो प्रकारकी भली प्रतीत हो रही है । पहिली स्वभावकी अनुपलब्धि और दूसरी व्यापककी अनुपलब्धि, इस ढंगसे ही दो भेद किये गये हैं।
आया यथा न मे दुःखं विषादानुपलंभतः। व्यापकानुपलब्धिस्तु वृक्षादृष्टेन शिंशपा ॥ ३१३ ॥
पहिली स्वभाव अनुपलब्धिका उदाहरण इस प्रकार है कि मुझको दुःख नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि कोई खेद नहीं देखा जा रहा है ( हेतु ) । और दूसरी व्यापक अनुपलब्धिका उदाहरण यों है कि यहां शीशों नहीं है (प्रतिज्ञा ), क्योंकि कोई वृक्ष नहीं देखा जा रहा है ( हेतु )। दुःखका स्वभाव विषाद है और शीशोंका व्यापक वृक्ष है, अतः स्वभाव और व्यापककी अनुपलब्धि स्वभाव वान् और व्याप्यके निषेधको सिद्ध करा देती हैं।
कार्यकारणभिन्नस्यानुपलब्धिर्न बुध्यताम् । सहचारिण एवात्र प्रतिषेध्येन वस्तुना ॥ ३१४ ॥ मयि नास्ति मतिज्ञानं सदृष्ट्यनुपलब्धितः ।
रूपादयो न जीवादौ स्पर्शासिद्धेरितीयताम् ॥ ३१५॥ • कार्य और कारणसे भिन्न हो रहे, चाहे जिसकी अनुपलब्धिसे चाहे जिस किसीका अभाव साध लेना तो नहीं समझना चाहिये, किन्तु प्रतिषेध करने योग्य वस्तुके साथ रहनेवालेका ही यहां अभाव साधा जाता है अर्थात् अकार्यकारणरूप वस्तुकी अनुपलब्धिका दूसरा भेद अतादात्म्य अनु. पलब्धिहेतु अपमे अविनामावी साध्यको ही साध सकेगा। जैसे कि मुझमें मतिज्ञान नहीं है (प्रतिज्ञा) क्योंकि सम्यग्दर्शन नहीं अनुभूत हो रहा है ( हेतु )। जीवद्रव्य, आकाशद्रव्य, आदिमें रूप आदिक नहीं है, क्योंकि स्पर्शगुणकी अनुपलब्धि हो ही है । इस प्रकार समझ लेना चाहिये । अर्थात् मतिज्ञानका सहचारी सम्यग्दर्शन है और रूप आदिका सहचारी स्पर्श है । एक सहचारीके न होनेस दूसरे अविनाभावी सहचारीका अभाव साध दिया जाता है। हेतुकी जीवनशक्ति अविनाभाव है।