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वार्थ लोक वार्तिके
इस कपिलमतको कालत्रयमें भी स्वीकार नहीं करेगा । दृश्य कार्योंकी अनुपलब्धिसे कारणका निषेध जानलेना समुचित है ।
स्वभावानुपलब्धेस्तु ताडशेनिष्टेः प्रकृतकार्यानुपलब्धौ पुनरन्यथानुपपन्नत्वसामर्थ्यनिश्चयो लोकस्य स्वत एवात्यंताभ्यासात्तादृशं लोको विवेचयतीति प्रसिद्धेस्ततः साधीयसी कार्यानुपलब्धिः ।
कारण कि स्वभाव अनुपलब्धिको तो तिस प्रकार के अभावको साधने में नहीं इष्ट किया गया है । अर्थात् मृतव्यक्ति में जीवका निषेध करनेके लिये स्वभावानुपलब्धि पर्याप्त नहीं है। योग्य कारण के अभावको साधनेमें दी गई प्रकरणप्राप्त कार्य - अनुपलब्धि में फिर अन्यथानुपत्तिकी सामर्थ्यका निश्चय तो जनसमुदायको स्वतः ही हो जाता है। बौद्धोंके यहां भी यह प्रसिद्ध है कि अत्यन्त अभ्यास हो जानेसे तिस प्रकार के अर्थका लोक स्वयं विचार कर लेता है। जिसके पास पचास रुपये भी नहीं हैं, उसके पास सौ रुपये नहीं हैं । वृक्षके न होनेसे शीशोंका अभाव या विलक्षण उष्णताके न होनेसे अग्निका अभाव जान लिया जाता है । वृद्धजन या वैध विद्वान् महिनों, दिनों, घन्टों, प्रथम ही किसीकी मृत्युको बता देते हैं। मृतकी परीक्षा विशेष कठिन कार्य नहीं है । तिस कारण कार्यकी अनुपलब्धि बहुत अच्छी सिद्ध कर दी गई है ।
कारणानुपलब्धिस्तु मयि नाचरणं शुभम् ।
सम्यग्बोधोपलम्भस्याभावादिति विभाव्यते ॥ ३१० ॥
दूसरी कारण अनुपलब्धिका उदाहरण तो इस प्रकार विचारकर निर्णीत किया जाता है कि मुझमें समीचीन चारित्र नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञानका उपलम्भ नहीं हो रहा है। यहां निषेध्य सम्यक् - चारित्र के कारण सम्यग्ज्ञानकी अनुपलब्धि होनेसे यह कारण - अनुपलब्धि हेतु समझा गया ।
सम्यग्बोधो हि कारणं सम्यक्चारित्रस्य तदनुपलब्धितः स्वसंताने तदभावं साधयतिकुतश्चिदुपजातस्य विभ्रमस्यान्यथा विच्छेदायोगात् ॥
सम्यग्ज्ञान अवश्य ही सम्यक् चारित्रका कारण है । उस सम्यक्ज्ञानका अनुपलम्भ होनेसे । वह ज्ञानाभाव अपनी आत्मसंतानमें उस सम्यक्चारित्रके अभावका साधन करा देता है। किसी भी भ्रमका दूसरे प्रकारोंसे निराकरण नहीं हो पाता है । जैसे कि किसी झूठे पुरुष द्वारा अपने में दरिद्रताका आरोप किये जानेपर सम्पत्ति, भूषण, यथायोग्य पूर्ण भोजन सामग्रीके सद्भाव अथवा ऋण देना न होनेसे दरिद्रताके आरोपी भ्रान्तिका निवारण हो जाता है ।
अहेतुफलरूपस्य वस्तुनोनुपलंभनम् ।
द्वेधा निषेध्यतादाम्येतरस्यादृष्टिकल्पनात् ॥ ३११ ॥