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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
चैतन्यका ही नास्तिपना ( साध्य ) मृतशरीर में वचन अनुपलब्धि हेतुसे सिद्ध हो सकेगा, किन्तु जिस छिपे हुये चैतन्यकी बोलना, नाडी चलना, हृदयकी धडकन, आदि व्यापार कराने की सामर्थ्य
हो गई है, उस गुप्तचैतन्यका निषेध तो वचन आदिकी अनुपलब्धिसे नहीं हो सकता है । सर्पकरके काटे गये किसी किसी पुरुषका चैतन्य विद्यमान रहता है । फिर भी बोलना; नाडी चलना, आदि कार्यों में व्यापार होनेका असंभव है । मत्त, मूच्छित, अंडस्थ आदि अवस्थाओं के समान मृतशरीर में भी सूक्ष्मचैतन्य विद्यमान हो सकता है । बह नाडी चलाना, आदि कार्योको नहीं करता है । सभी कारण आवश्यक रूपसे कार्योंको करें ही, ऐसा कोई नियम नहीं है । वृक्षमें स्थित हो रहा दण्ड देखो घटको नहीं कर रहा है । प्रतिबन्धकोंके आजानेसे अथवा अन्य कारणोंकी विकलता (कमी ) सम्भवने पर कोई कोई कारण तो अपने कार्योंको अपनी स्थिति ( पूरी आयु ) पर्यन्त भी नहीं करते हुये देखे गये हैं । तिस कारण यह कार्यअनुपलब्धि हेतु अपने साध्यका गमक नहीं है । अतः स्थूल, सूक्ष्म, गुप्त सभी सामान्य रूपसे चैतन्योंके अभावको साधने में दिया गया वचन आदिकी अनुपलब्धि हेतु अपने साध्यका साधक न हो सका, इस प्रकार कोई कह रहा है। अब आचार्य कहते हैं कि उसके यहां संबंधरूप कार्यके नहीं होनेसे नित्य आत्मा, आकाश, आदिके अभावकी सिद्धि भला कैसी हो जायगी ? इस कारण उसको अपने मतका व्याघात दोष प्राप्त हुआ कह दिया गया है । अर्थात् बौद्धोंने आत्माको नित्य नहीं माना क्योंकि उसके कार्य अनादि अनंत पर्यायोंमें संबंध रहना, अन्वितसंतान बनजाना, आदि नहीं देखे जाते हैं । ऐसी दशामें कोई कह सकता है कि नित्य आत्मा बना रहे और उसके कार्य न भी होवें, जैसे कि नाडी चलना आदि कार्योंको नहीं करता हुआ भी चैतन्य उन्होंने मृतशरीर में मान लिया है । इस ढंगसे बौद्धोंको अपने क्षणिक सिद्धान्तकी क्षति उठानी पडती है । दरिद्रपुरुषोंके भी करोडों रुपयोंकी सत्ता मानली जायगी, मूर्ख भी पंडित बन जावेंगे। मृतका दाह करनेवालोंको महापातकीपनका प्रसंग होगा । तिस कारण अपनी संतानमें अन्य संतानोंके अभावको उनके कार्योंके नहीं दीखनेसे साधन करा रहा बौद्ध कार्य - अनुपलब्धि हेतुसे किसी अविनाभावी कारणके अभावकी सिद्धिको अवश्य मान रहा है । अथवा वर्त्तमान क्षणिकपर्यायके अवसर में अन्य कालोंकी पर्यायके अभावको साध रहा प्रतिवादी बौद्ध कार्य अनुपलब्धि हेतुसे अन्यथानुपपत्तिकी सामर्थ्य द्वारा कारणका अभाव स्वीकार कर ही रहा है । तथा शुद्धसंवेदन अद्वैत में वेद्य, वेदक, संवित्ति, इम तीनके मेदको उनके कार्यकी अनुपलब्धिसे असत्पने करके साधन कर रहा वैभाषिक बौद्ध अन्यथानुपपत्तिकी सामर्थ्य के निश्चयसे कार्यानुपलब्धि हेतुका गमकपना स्वीकार करने के लिये समर्थ हो जाता ही है। सौत्रान्तिक पक्षसे नाता तोडकर योगाचार बनो या योगाचार भी नहीं बनकर वैभाषिक बननेका अभिनय करो, कार्यानुपलब्धिको गमक मानना ही पडेगा । शून्यवादी माध्यमिक तो “ सर्वं सर्वत्र विद्यते "
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