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तत्त्वार्थश्लोकवातिक
निषेधेऽनुपलब्धिः स्यात्फलहेत्वद्वयात्मना।
हेतुसाध्याविनाभावनियमस्य विनिश्चयात् ॥ ३०८ ॥
निषेधको साधनेमें फल ( कार्य ) कारण और इन दोनोंसे न्यारे तीसरे अकार्यकारण स्वरूप. करके तीन प्रकारकी अनुपलब्धि है । क्योंकि हेतुका साध्यके साथ अविनाभाव रखनारूप नियमका विशेषरूपसे निश्चय हो रहा है।
निषेधेऽनुपलब्धिरेवेति नावधारणीयम् विरुद्धोपलब्ध्यादेरपि तत्र प्रवृत्तिः निषेध एवानुपलब्धिरित्यवधारणे तु न दोषः प्रधानेन विधौ तदप्रवृत्तः। सा च कार्यकारणानुभयात्मनामवबोद्धव्या।
निषेधको साधनेमें अनुपलब्धि ही हेतु है, इस प्रकारका अवधारण नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस निषेधको साधनेमें विरुद्ध उपलब्धि आदिकी भी प्रवृत्ति हो रही है। हां, निषेधको साधनेमें ही अनुपलब्धि हेतु उपयोगी है । ऐसा अवधारण करनेमें तो कोई विशेष दोष नहीं आता है। कारण कि प्रधानरूपसे विधि करनेमें उस अनुपलब्धिकी प्रवृत्ति नहीं मानी गई है । तथा वह अनुपलब्धि कार्यकी कारणकी और उभयभिन्न अकार्यकारणकी समझ लेनी चाहिये ।
तत्र कार्याप्रसिद्धिः स्यान्नास्ति चिन्मृतविग्रहे । वाक्रियाकारभेदानामसिद्धेरिति निश्चिता ॥ ३०९ ॥
तिस अनुपलब्धिके तीन मेदोंमें कार्यकी अनुपलब्धिका उदाहरण इस प्रकार निश्चित किया गया समझो कि इस मृतक शरीरमें (पक्ष) चैतन्य नहीं है ( साध्य ) वचनोंके विशेष, क्रियाओंके विशेष, और आकारों के विशेषोंकी अनुपलब्धि हो रही है ।
ननु वागादिष्वप्रतिबद्धसामर्थ्याया एवं चितो नास्तित्वं वचनानुपलब्धेः सिध्येन्न तु प्रतिबद्धसामाया विद्यमानाया अपि वागादिकार्ये व्यापारासंभवान्नावश्यं कारणानि कार्ययन्ति भवंति प्रतिबंधवैकल्यसंभवे कस्यचित्कारणस्य स्वकार्याकरणदर्शनाचतो नेयं कार्यानुपलब्धिमिका चिन्मात्रामावसिद्धाविति कश्चित् । तस्यापि संबंधकार्याभावात्कयंनित्यात्माघभावसिद्धिरिति स्वमतव्याहतिरुक्ता । ततः स्वसंताने संतानांतरं वर्तमान क्षणे क्षणांतरं संविदद्वये वेद्याकारभेदं वा तत्कार्यानुपलब्धेरसत्वेन साधयन्कार्यानुपलब्धेरन्यथानुपपत्तिसामथ्येनिश्चयाद्गमकत्वमभ्युपगंतुमर्हत्येव ।
यहां ब्रह्म अद्वैतवादीके किसी एकदेशीका या बौद्धोंका पूर्वपक्ष है कि वचन बोलना, हाथ पांवकी क्रिया करना, नाडी चलना, आदि व्यापारोंमें नहीं रोकी जा रही सामर्थ्यसे युक्त हो रहे