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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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बौद्धोंके माने गये तीन ही हेतु नहीं हैं । किंतु अन्य सहचर आदि हेतुओंकी भी व्यवस्था की जा चुकी है।
पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः। अविनाभावनियमादिति वाच्यं न धीमता ॥ ३०५॥ पक्षधर्मात्यये युक्ताः सहचार्यादयो यतः । सत्यं च हेतवो नातो हेत्वाभासास्तथापरे ॥ ३०६ ॥
बौद्ध कहते हैं कि उस साध्यवान् पक्षके अंशरूप साध्यकरके व्याप्त हो रहा वह हेतु पक्षमें वर्तता संता तीन ही प्रकारका है । पक्षमें वर्त्तरहे हेतुका अविनामावनियम भी घटित हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि यह तो बुद्धिमान बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये । जिस कारणसे कि सहचारी, उत्तरचारी, आदि हेतु भी पक्षमें वर्तना नहीं होनेपर भी सत्यार्थरूपसे हेतु माने गये हैं । इस कारण तिस प्रकार पक्षसत्त्व नामक गुण नहीं रहनेसे कार्यस्वभाव, अनुपलब्धि हेतुओंसे मिन्न सभी हेतु हेत्वाभास नहीं हो सकते हैं । भावार्थ-पक्षमें वर्तना न होते हुये भी पूर्वचर आदि हेतुओंको सद्धेतुपना साध दिया गया है।
त्रिधैव वाविनाभावानियमाद्धेतुरास्थितः। कार्यादिर्नान्य इत्येषा व्याख्यैतेन निराकृता ॥ ३०७ ॥
" हेतुविधैव " इसका व्याख्यान बौद्ध यों करते हैं कि पक्षसत्त्व, सपक्षसत्व, विपक्ष व्यावृत्ति, इन तीन गुणोंसे युक्त हो रहे कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि, ये तीन ही हेतु हैं । अथवा कोई यों व्याख्या करते हैं कि कार्य १ कारण २ अकार्यकारण ३ तथा वीत १ अवीत २ वीतावीत ३ एवं पूर्ववत् आदि तीन संयोगी आदि तीन ही प्रकारके हेतु सब ओर व्यवस्थित हो रहे हैं। अन्य हेतुओंके मेद नहीं हैं। अविनाभाव नियमकी कोई आवश्यकता नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार ये व्याख्यान भी इस उक्त कथनकरके निराकृत कर दिये गये हैं। अर्थात् पूर्ववत् आदि, कार्य आदिसे न्यारे सहचर आदिक हेतु भी अविनामावकी सामर्थ्यसे सद्धेतु प्रसिद्ध हैं।
तदेवं कस्यचिदर्यस्य विधौ प्रतिषेधे वोपलब्धिभेदानभिधाय संपति निषेधेनुपलब्धिप्रपंचं निश्चिन्वन्नाहा
- तिस कारण इस ढंगसे किसी भी अर्थकी विधिको अथवा प्रतिषेधको साधनेमें दिये गये उपलब्धिके भेदोंका कथन कर चुकनेपर अब ( इस समय ) निषेधको साधनेमें अनुपलब्धि हेतुओंके विस्तारका निश्चय कराते हुये आचार्य महाराज कहते हैं।