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वार्थ लोकवार्तिके
यदि बौद्ध यों कहें कि उत्तरवर हेतुओंको कार्यहेतुमें गर्भित कर लिया जाय, कार्य भी तो कारण उत्तरकाल में रहता है । प्रन्थकार कहते हैं कि सो ठीक नहीं है । क्योंकि यहां उसका चारों ओरसे निराकरण कर दिया है । अनुकूल वेदनीय सातस्वरूप सुख और प्रतिकूल होकर अनुभव किये गये असातरूप दुःख हैं फल जिनके, ऐसे अनेक प्राणीसमुदायके पुण्यपापोंके विना कोई कार्य होता नहीं है । अतः सुखदुःखरूप फलसे जो पुण्यपापका अनुमान है, वह कार्यसे कारणका अनुमान है । और घडीमें चार बजचुकनेका ज्ञापक वर्त्तमानमें पांच बजना यह उत्तरचर हेतु है । यहां कुछ अप्रसंगसा दीखता है। विशेष बुद्धिमान् विचार कर ठीक कर लेंगे ऐसी सम्भावना है।
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पूर्वोत्तरचराणि स्युर्भानि क्रमभुवः सदा ।
नान्योन्यं हेतुता तेषां कार्याबाधा ततो मता ॥ ३०३ ॥
क्रम करके होनेवाले उत्तर पूर्ववत्त पदार्थोंसे पूर्वउत्तर में उदय होकर गमन कर रहे नक्षत्र जो होवेंगे, उनका परस्पर में हेतुपना नहीं करना चाहिये। हां, भूत, भविष्यत् कालको मध्यमें देकर तिस कारण निर्वाध होकर उनको हेतुपना माना गया है। जिस प्रकार लौकिक अथवा शास्त्रीय विद्वानोंका बाधारहित व्यवहार होवे, उस प्रकार हेतु हेतुमद्भाव मानकर समीचीन हेतुकी व्यवस्था कर लेनी चाहिये ।
साध्यसाधनता च स्यादविनाभावयोगतः ।
हेत्वाभासस्ततोन्ये ये सौगतैरुपदर्शितं ॥ ३०४ ॥
अन्यथानुपपत्तिरूप अविनाभाव के योगसे साध्यसाधनभाव माना गया है। अविनाभावको न मानकर जो सौगतोंने उन व्याप्य आदिकोंसे न्यारे हेतु माने हैं, वे सब हेत्वाभास हैं, इस तो हम भले प्रकार दिखला चुके हैं । अथवा अविनाभाव के संबंध से साध्यसाधनभाव नहीं होता है । कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि, ये तीन ही हेतु हैं। उनसे न्यारे पूर्वचर आदिक हेत्वाभास ही हैं । इस प्रकार बौद्धोंका कथन ठीक नहीं है ।
तदेवं सहचरोपलब्ध्यादीनां कार्यस्वभावानुपलब्धिभ्योन्यत्वभाजां व्यवस्थापनाचतोन्ये हेत्वाभासा एवेति न वक्तव्यं सौगतैरित्युपदर्शयति ; -
तिस कारण इस प्रकार सइचर उपलब्धि, पूर्वचर उपलब्धि, आदि जो कि बौद्धों द्वारा माने. गये कार्यहेतु, स्वभावहेतु और अनुपलब्धिहेतु ओंसे न्यारेपनको प्राप्त हो रहे हैं । उनकी व्यवस्था कर दी गयी होनेसे बौद्ध यदि यों कहें कि उन कार्य आदि तीन हेतुओंसे भिन्न सभी हेतु हेत्वाभास ही हैं। सो यह तो उन्हें नहीं करना चाहिये । इस बातको ग्रन्थकार दिखलाते हैं । अर्थात्