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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
और भी किसी भींत या डेरे, सूर्य आदिके उरले भाग परले भाग आदिक जो नियम करके परस्परमें साथ रहनेपनको प्राप्त हो रहे हैं, उनका भी साध्यसाधनभाव है । इस कथन करके उनके सहचारीपनका साधन भी वर्णन कर दिया गया है । इस भींतमें परभाग अवश्य है, क्योंकि उरला माग दीख रहा है, अथवा इस अधिक चौडी नदीमें परला पार ( किनारा) अवश्य है। क्योंकि यह उरला तट दीख रहा है । विचारशील पुरुषोंकरके साथ रहनेवाले कतिपय पदार्थोका अविनाभाव जाना जा सकता है। वह भी पदार्थोकी स्वरूपभूत हो रही किसी न किसी परिणतिपर अवलंबित है।
ततोतीतैककालानां गतिः किं कार्यलिंगजा। नियमादन्यथा दृष्टिः सहचार्यादसिद्धितः ॥ ३०० ॥
तिस कारण अधिक काल पहिले हो चुके और एक ही कालमें हो रहे पदार्थोका ज्ञान क्या कार्यहेतुसे उत्पन्न हुआ माना जायगा ? चिरभूतमें हुये और वर्तमानमें हो रहे पदार्थका तथा वर्तमानमें ही साथ हो रहे दो पदार्थोका कार्यकारणभाव तो असम्भव है । व्यापार, सहकारिता, उपादेयताको कर रहे पूर्वक्षणवर्ती पदार्थका व्यापार आदिके झेल रहे अव्यवहित उत्तरवर्ती पदार्थके साथ कार्यकारणभाव संबंध माना गया है । बौद्धोंने जो यह कहा था कि “ अतीतैककालानां गतिर्नानागतानां " सो आग्रह करना ठीक नहीं है । नियमके विना दूसरे प्रकारोंसे सहचरपनेसे केवल देख लेना तो गमक नहीं है। क्योंकि अविनाभावरहित पदार्थोके हेतु हेतुमद्भावकी असिद्धि है, दो खड़ाम् साथ रहते हैं, गाडीके दो पहिये या पर्वत नारद अथवा सन्दूकका ऊपर नीचेका परला साथ रहते हैं । फिर भी अविनाम नहीं होनेके कारण इनका - सहचारीपनसे हेतु हेतुमद्भाव असिद्ध है। संभव है एक ही खडाम् किसीने बनाई होय, अथवा दूसरी खडाम् खो गई होय, आदि यहांतक पूर्वचर हेतुका वर्णन किया है।
तथोत्तरचरस्योपलब्धिस्तज्ज्ञैरुदाहृता । उदगाद्भरणिरामेयदर्शनान्नभसीति सा ।। ३०१ ॥
अब उत्तरचर हेतुका वर्णन करते हैं। उन हेतुभेदोंको जाननेवाले विद्वानोंकरके तिसी प्रकार उत्तरचरकी उपलब्धिका उदाहरण यों दिया है कि आकाशमण्डलमें (पक्ष ) भरणी नक्षत्रका उदय हो चुका है ( साध्य ), क्योंकि कृत्तिकाका उदय देखा जा रहा है ( हेतु )। इस 'प्रकार वह भरणी उदयके मुहूर्त पीछे उदय होनेवाली कृत्तिकाकी उपलब्धि है।
सर्वमुत्तरचारीह कार्यमित्यानिराकृतेः। नानाप्राणिगणादृष्टात्सातेतरफलाद्विना ॥ ३०२ ॥