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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अविनाभाव मानना समान क्यों नहीं हो जावेगा। इस पर यदि तुम यह समाधान करो कि हम क्या करें सर्वथा भिन्न पडे हुये भी पूर्व अपर क्षणोंमें कार्यकारणभाव हो रहा तिस प्रकार अच्छे ढंगसे जाना जा रहा है । तब तो इस प्रकारका समाधान हम जैनोंके यहां भी तुल्य पडता है । अपने रुपयेको सुन्दर, सुडौल, दृढ, कहकर मागना और उसके द्वारा पहिले दे दिये गये रूपयेको रुपिल्ली कहकर तिरस्कार करना अन्याय्य है।
स्वकारणात्तथामिश्चेज्जातो धूमस्य कारकः ।
चैतन्यसहकार्यस्तु स्पशोंगे तददृष्टतः ॥ २९६ ॥ दृष्टाद्धेतोविना ये नियमात्सहचारिणाः । अदृष्टकरणं तेषां किंचिदित्यनुमीयते ॥ २९७ ॥
अपने कारणोंसे उत्पन्न हो चुकी अग्नि धुआं को बनानेवाली देखी जाती है। ऐसा कहने पर तो हम भी कहते हैं कि तिसी प्रकार शरीरमें पाया जा रहा स्पर्श भी तो उसके पुण्य, पापसे सहकृत हो रहे चैतन्यरूप सहकारी कारणसे उत्पन्न हो गया है । प्रत्यक्ष देखे गये हेतुके विना भी जो अर्थ नियमसे सहचारी हो रहे हैं, उनका भी कोई न कोई अदृष्ट कारण इस प्रकार अनुमान द्वारा जानलिया जाता है। तभी तो एक ही गुरुके पढाये हुये अनेक विद्यार्थियोंकी व्युत्पत्तिका वैलक्षण्य देखकर उनके ज्ञानावरणके तीव्र, मन्द, मन्दतर, मध्यम, आदि विजातीय क्षयोपशमोंका अनुमान कर लिया जाता है । प्रकरणमें साथ रहनेवाले हेतु और साध्योंके संबंधका अविनाभाव रूपसे कहीं कहीं अनुमान कर लिया जाता है।
द्रव्यतोऽनादिरूपाणां स्वभावोस्तु न तादृशः।
साध्यसाधनतैवैषां तत्कृतान्योन्यमित्यसत् ॥ २९८ ॥ .
बौद्ध कहते हैं कि अनादिनिधनद्रव्यकी अपेक्षासे अनादिसे चले आये स्वरूपोंका तिस प्रकारका स्वभाव तो नहीं है। क्योंकि हम बौद्ध किसी भी द्रव्य को अनादिनिधन नहीं मानते हैं । जिससे कि इन सहचारियोंका उस द्रव्यस्वरूपसे किया गया परस्परमें साध्यसाधनभाव हो जाय । आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धोंका कहना प्रशंसनीय नहीं है । पदार्थोका कालान्तरतक स्थायीपना और संबंध तो पूर्वप्रकरणोंमें साध दिया गया है, वहांसे समझलेना।
ये चार्वापरभागाद्या नियमेन परस्परम् । सहभावमितास्तेषां हेतुरेतेन वर्णितः ॥ २९९ ॥