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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यथैव हि पयोरूपं (?) रूपाद्रससहायकात् ।
तथा सरोद्भवेपीति स्यात्समाननिमित्तता ॥ २९२ ॥
यदि रूप और रसका कारण समान है, अतः रूप और रसकी एक सामग्री इष्ट की जायगी, तब तो जलके रससे कमलके रूपका अनुमान क्यों न हो जावे ? क्योंकि जलके रसका कारण जल है । और कमलके रूपका कारण भी वही जल है । जिस ही प्रकार रस है सहायक जिसका, ऐसे रूपस्कंधसे जलका रूप बनता है, तिस ही प्रकार कमलमें भी रूप बन जाता है । ऐसी दशामें समाननिमित्तपना हो जावेगा। ..
प्रत्यासचेरभावाचेत्साध्यसाधनतानयोः ।
नष्टैकद्रव्यतादात्म्यात् प्रत्यासत्तिः परा च सा ॥ २९३. ।।
कार्य और कारणोंकी प्रत्यासत्ति न होनेसे इन कार्यकारणमिनोंका साध्यसाधनपना यदि मानोगे तब तो हम जैन कहेंगे कि एक द्रव्यके साथ तदात्मक हो रहे रूपसंबंधके अतिरिक्त और कोई वह प्रत्यासत्ति नहीं है । कार्यकारण भावको प्राप्त हो रहे पदार्थोंमें अन्य क्षेत्रप्रत्यासत्ति, कालप्रत्यासत्ति आदिका हम खण्डन कर चुके हैं। अथवा प्रत्यासत्ति नहीं होनेसे बौद्ध इन सहचरोंके साध्यसाधनभावको नष्ट कर देंगे तब तो हम जैन कहते हैं कि एक द्रव्यमें तदात्मक होनेसे वह बढिया द्रव्यप्रत्यासत्ति उनकी विद्यमान है। जिनकी माता वर्तमान है, उनको विना मैय्याका क्यों कहा जाता है !
नन्वर्थान्तरभूतानामहेतुफलताश्रिताम् । सहचारित्वमर्थानां कुतो नियतमीक्ष्यते ॥ २९४ ॥ कार्यकारणभावास्ते कस्मादिति समं न किम् ।
तथा संप्रत्ययात्तुल्यं समाधानमपीदृशं ॥ २९५॥ .
यहां बौद्धोंकी शंका है कि सर्वथा एक दूसरेसे मिन हो रहे और कार्यकारण भावके आश्रय नहीं हो रहे पदार्थीका सहचारिपना किस हेतुसे नियत हो रहा विचारा जा सकता है ? बताओ। अर्थात् किसी भी प्रकारसे कुछ भी संबंध नहीं रखनेवाले सर्वथा उदासीन दो सहचर पदार्थोका अविनाभाव जान लेना दुःशक्य है। इसका समाधान आचार्य महाराज करते हैं कि तुम बौद्धोंके यहां पूर्व, उत्तरवर्ती निरन्वयक्षणिक पदार्थीका कार्यकारणभाव भला किससे निीत किया जाता है ? बताओ । पूर्वसमयवर्ती क्षणका उत्तर समयवर्ती क्षणिकपरिणामके साथ तुमने कोई भी संबंध नहीं माना है । इस प्रकार तुम्हारा सर्वथा भिन्न हो रहे पदार्थो में कार्यकारणभाव मानना और हमारा