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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
मस्तकपर बांये ओरका और दाहिने ओरका सींग साथ रहकर स्वतंत्र व्यवस्थित हैं । पहिले और पीछे समयोंमें होनेवालोंमें कार्यकारणभाव सम्भवता है, साथ रहनेवालोंमें नहीं । अतः यह सहचर हेतु कार्यहेतुसे निराला ही है।।
एकसामग्यधीनत्वात्तयोः स्यात्सहभाविता । क्वान्यथा नियमस्तस्यास्ततोन्येषामितीति चेत् ॥ २८७ ॥ नैकद्रव्यात्मतत्वेन विना तस्या विरोधतः।
सामग्येका हि तद्व्यं रसरूपादिषु स्फुटम् ॥ २८८ ॥
बौद्ध कहते हैं कि एक सामग्रीके अधीन होनेसे यदि उन डेरे सीधे सींगोंमें सहभावीपना माना जाय, अन्यथा उस सामग्रीका नियम भला कहां माना जायगा ? । उससे मिनोंका नियम तो कहीं भी न बनेगा । अर्थात् सहचर हेतुओंमें भी कार्यकारणभाव मान लो । तभी तो एक सामग्रीके अनुसार उनमें सहचरपना बन जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बौद्धोंका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि एक द्रव्यस्वरूप हो जानारूप तत्त्वके विना उस सामग्रीका विरोध है । कारण कि वह द्रव्य ही तो एक सामग्री है। यह रूप रस आदिकोंमें स्पष्ट देखा जाता है । ऐसी दशामें रस, रूप, आदिकोंका कार्यकारणभाव कैसा !।
न च तस्यानुमा खाद्यमानाद्रसविशेषतः। समानसमयस्यैव रूपादेरनुमानतः ॥२८९ ॥ कार्येण कारणस्यानुमानं येनेदमुच्यते ।
कारणेनापि रूपादेस्ततो द्रव्येण नानुमा ॥ २९० ॥
रससे रूपका अनुमान करते समय वह कार्यसे कारणका अनुमान नहीं है। किन्तु सहचर हेतु है । नींबूके चाट लिये जा रहे रसविशेषसे समान समयवाले ही रूप आदिका अनुमान होना देखा जाता है । बौद्धोंने भी प्रत्यक्ष हुये रससे रूपसामग्रीका अनुमान कर पुनः रूपका अनुमान न होना माना है । जिस बौद्धने इसको कार्य द्वारा कारणका ज्ञान होनारूप अनुमान कहा है, उसके यहां कारणकरके भी रूप आदिका अथवा तिस ही कारणद्रव्यकरके रूप आदिका अनुमान होना नहीं बन सकेगा । बौद्धोंने कारणहेतु तो स्वीकार नहीं किया है।
समानकारणत्वं तु सामग्न्येका यदीष्यते । पयोरसात्सरोजन्मरूपस्यानुमितिर्न किम् ॥ २९१ ॥