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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्वरूप लाभ हेतोश्चेत् पितृत्वं नेतरस्य तु ।
प्राक् शकटस्य मा भूवन् कृत्तिका हेतवस्तथा ॥ २८३ ॥
यदि पुत्र स्वरूपको लाभ कराने में कारण हो रहे पहिली पीडीमें होनेवाले जनकको ही पितापन है, अन्य बाबा आदिको पितापना नहीं है, तभी तो माताको दादी परदादीपनका प्रसंग दूर हो जाता है । इस प्रकार कहनेपर तो पूर्वकालमें वर्त्त रही कृत्तिका भी तिस ही प्रकार शकटका कारण नहीं होवे । न्याय सर्वत्र एकसा होना चाहिये ।
पूर्वपूर्व चरादीनामुपलब्धिः प्रदर्शिता । पूर्वाचार्योपलंभेन ततो नाथांतरं मतम् ॥ २८४ ॥
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पूर्ववर्त्ती नक्षत्रों के भी पहले चरनेवाले आदिकोंकी उपलब्धि भी इस पूर्वचर नामके भेदसे ही दिखलादी गयी है । पूर्व आचार्योंने इसी प्रकार देखा है । अथवा पूर्वसे भी पूर्वचरनेवाले नक्षत्र आदिकों में पूर्वचरपना देखा जाता है । तिस कारण वे पूर्वचर हेतुसे भिन्न हेतु नहीं मानी गयी हैं । जैसे कि दो मुहूर्त पीछे रोहिणी का उदय होगा, क्योंकि भरणीका उदय हो रहा है । अथवा इस चाकके ऊपर कोश बन जावेगा। क्योंकि इस समय छत्र बन गया है । कुम्हार द्वारा चाकपर घडा बनाने पहिले मिट्टीकी शिवक ( पिंडी ) छत्र ( हाथसे चौडा छत्ता बनाना ) स्थास ( कुछ ऊंचेकी ओर चौडाई करना ) कोश ( मिट्टी में सरवा सरीखा बनाना ) कुशूल ( ऊंचा उठाकर भीतें बनाना ) अवस्थायें रची जाती हैं । पुनः थोडी क्रिया करनेसे घट बन जाता है । अतः कोश पर्यायके पूर्व में स्थास है और स्वासके पहिले मृत्तिकाकी छत्रपर्याय है ।
सहचार्युपलब्धिः स्यात्कायश्चैतन्यवानयम् ।
विशिष्टस्पर्शसं सिद्धेरिति कैश्विदुदाहृतम् ॥ २८५ ॥
अब सहचर उपलब्धि हेतुका उदाहरण देते हैं कि यह शरीर ( पक्ष ) चैतन्ययुक्त है । अर्थात् मृत नहीं है ( साध्य ) जीवित पुरुषों में पाये जानेवाले विशिष्ट प्रकारके स्पर्शकी अच्छी सिद्धि हो रही है ( हेतु ) इस प्रकार किन्हीं विद्वानोंने सहचर उपलब्धिका उदाहरण दिया है । आयुर्वेद, या शारीरिक शास्त्रको जाननेवाले विद्वान् चैतन्य और स्पर्शविशेषका सहचरपना जानते है । कार्ये हेतुरयं नेष्टः समानसमयत्वतः ।
स्वातंत्र्येण व्यवस्थानाद्वामदक्षिणश्रृंगवत् ॥ २८६ ॥
यह सहचर हेतु कार्यहेतुमें गर्भित हो जाय ऐसा इष्ट नहीं है । क्योंकि इन दोनों का समय समान है । साथ साथ रहनेवाले साध्य और हेतु स्वतंत्रतासे व्यवस्थित हो रहे हैं । जैसे कि गौके
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