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स्वार्थ लोकवार्तिके
कर देता है । तब तो हम जैन कहते हैं कि एक मुहूर्त्तका व्यवधान देकर जैसे कृत्तिका रोहिणीको कर देती है, वैसे ही दो मुहूर्त्तका व्यवधान देकर भरणी और तीन मुहूर्त्तका व्यवधान देकर अश्विनीनक्षत्र ही शकट ( रोहिणी ) को क्यों नहीं तिस ही प्रकार उदयरूप बना देते हैं । कई ताराओं का समुदाय होकर कृत्तिका नक्षत्र बना है । अतः कृत्तिका शब्द बहुवचनान्त प्रयुक्त किया गया है । त्रिलोकसार में "कित्तियपहुदिसु तारा छप्पण तिय एक " यों कृत्तिकामें छह तारे माने हैं । I
व्यवधानादहेतुत्वे तस्यास्तत्र क वासना । स्मृतिहेतुर्विभाव्येत तत्त एवेत्यवर्तिनम् ॥ २८० ॥
समय बहुतकाल पहिले हो चुकी
वहां अधिक व्यवधान हो जानेसे अश्विनी, भरणीको यदि उस रोहिणीके उदयका हेतुपना न मानोगे तब तो हम कहेंगे कि धारण नामक अनुभव करते वासना भला अधिक काल पीछे होनेवाली स्मृतिका कारण कहां समझी जावेगी ! अर्थात् अधिक काल पहिले हो चुकीं धारणाज्ञानस्वरूप वासनायें वर्षों पीछे होनेवाली स्मृतिकी कारण तुम बौद्धोंके यहां तिस ही कारण यानी बहुत व्यवधान पड जानेसे नहीं बन सकेंगी। इस प्रकार कार्यमें व्यापार करते हुये नहीं वर्त्त रहे पदार्थको कारण नहीं मानना चाहिये ।
कारणं भरणिस्तत्र कृत्तिका सहकारिणी ।
यदि कालांतरापेक्षा तथा स्थादश्विनी न किम् ॥ २८१॥
कृत्तिकाको सहकारि कारण बनाती हुई भरणी भी उस शकटके उदयमें यदि कारण मान ली जावेगी तब तो कुछ और भी अन्यकालकी अपेक्षा रखती हुई अर्थात् मरणी और कृत्तिकाको सह कारीकारण मानती हुई अश्विनी भी तिसी प्रकार शकटका कारण क्यों न हो जाय ! यों तो कोई व्यवस्था नहीं टिक सकेगी, पोल मच जायगी । मूर्ख भी पंडितकी थोडी सहायता प्राप्त कर व्याख्याता य़ा पाठक बन जायगा । कछुआ भी हिरणकी सहकारितासे लम्बी दौड लगा लेगा । धर्मात्माओं के । विमानों को पकडकर पापीजन भी स्वर्गौकी चहल पहलका आनन्द भोग लेंगे ।
पितामहः पिता किं न तथैव प्रपितामहः ।
सर्वो वानादिसंतानः सूनोः पूर्वत्वयोगतः ॥ २८२ ॥
जिस प्रकार पुत्रका कारण पिता है, तिस ही के समान पितामह ( बाबा ) अथवा प्रपितामह ( पडबाबा ) भी बाप क्यों नहीं हो जावे एवं पुत्रके पूर्वमें रहनेपनका सम्बंध होनेसे सभी सैकडों हजारों पीडियां और पहिलेकी अनादि संतान भी पुत्रका बाप बन जावेंगीं जो कि मानी नहीं गई हैं।