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तत्वार्थचिन्तामणिः
तत्र पूर्वचरस्योपलब्धिः सिद्धान्तवेदिनाम् । यथोदेष्यति नक्षत्रं शकटं कृत्तिकोदयात् ॥ २७६ ॥
तिन तीन भेदोंमें पूर्वचरहेतुकी उपलब्धिका तो सिद्धान्त जाननेवालोंके यहां यह उदाहरण प्रदर्शित किया है कि एक मुहूर्तके पीछे रोहिणी नक्षत्रका उदय होवेगा। क्योंकि कृत्तिका नक्षत्रका उदय अभी हुआ है । यहां अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, इस क्रमके अनुसार शकट उदयका पूर्वचारी कृत्तिकाका उदय है।।
पूर्वचारि न निःशेषं कारणं नियमादपि । कार्यात्मलाभहेतूनां कारणत्वप्रसिद्धितः ॥ २७७ ॥ न रोहिण्युदयस्तु स्यादमुष्मिन् कृत्तिकोदयात् । तदनंतरसंधित्वाभावात्कालान्तरेक्षणात् ॥ २७८ ॥
पूर्वमें रहनेवाले सम्पूर्ण ही पदार्थ कारण नहीं हुआ करते हैं। जिससे कि यह कृत्तिका उदय हेतु भी कारण हेतुमें गर्मित हो जाय। क्योंकि जो पूर्ववर्ती होते हुये नियमसे कार्यके आत्मलाम करने में कारण भी हो रहे हैं, उनको कारणपनेकी प्रसिद्धि है । सहारनपुरसे शिखरजीको जानेपर पहिले मध्यमें अयोध्या पडती है । एतावता संमेदशिखरका कारण अयोध्या नहीं है। नहीं तो कलकत्ता या आरावालोंको भी अयोध्या अवश्य पडती । रेलगाडी मानेके प्रथम सिगनल गिरता है। किन्तु वह रेलगाडीको खीचनेमें कारण नहीं है। मध्यान्हके प्रथम प्रातःकाल होता है। परन्तु इनका कार्यकारणभाव नहीं है। हां, पूर्वचर उत्तरचरपना है । दूसरी बात यह है कि अन्वय, व्यतिरेकसे कार्यकारणभावका निर्णय किया जाता है । कृत्तिका उदय होनेसे उस समयमें रोहिणीका उदय तो नहीं है। क्योंकि उस कृत्तिका उदय के अव्यवहित उत्तरकालमें शकट उदयका सम्मेलन नहीं देखा जाता है। किन्तु मुहूर्त पीछे अन्यकालमें शकटका उदय होना देखा जाता है। अतः शकट उदय और कृत्तिका उदय कार्यकारणभाव नहीं होनेसे कृत्तिका उदयका कारण हेतुओंमें अंतर्भाव नहीं हो सकता है।
विशिष्टकालमासाद्य कृत्तिकाः कुर्वते यदि ।
शकटं भरणिः किं न तत्करोति तथैव च ॥ २७९ ॥ - यदि बौद्ध यों कहें कि सभी कारण अव्यवहित उत्तरक्षणमें ही कार्यको थोडे ही कर देते हैं। अन्य सामग्रीके जुटने या स्वयंके परिपक होनेके लिये अवसरकी आकांक्षा रखते हुये वे कारण कार्योको करते हैं । अतः कृत्तिका नक्षत्रका उदय भी विशिष्टकालको प्राप्त होकर शकटके उदयको