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तस्वार्थश्लोकवार्तिक
समझ लेना चाहिये । क्योंकि मति आदिकोंका अज्ञानस्वरूप निषेध्यके अभावरूप सांध्यके साथ इन हेतुओंके अविनाभाव प्रतीत होनेका कोई अन्तर नहीं है । अर्थात् उक्त हेतुओंका अपने साध्यके साथ अविनामाव विशेषतारहित होकर प्रतीत हो रहा है।
इत्येवं तद्विरुद्धोपलब्धिभेदाः प्रतीतिगाः। -
यथायोगमुदाहार्याः स्वयं तत्त्वपरीक्षकैः ॥२७४ ॥....
इत्यादि ढंगसे उस विरुद्ध उपलब्धिके प्रतीतिमें आरूढ हो रहे, भेदोंके यथायोग्य उदाहरण तत्त्वोंकी परीक्षा करनेवाले विद्वानोंकरके स्वयं समझ लेने चाहिये । ग्रन्थविस्तारके भयसे यहां अधिक उदाहरण नहीं लिखे हैं । व्युत्पनपुरुष उन उदाहरणोंकी स्वयं ऊहा कर सकते हैं । __इत्येवं निषिद्ध विरुद्धोपलब्धिभेदाश्चतुर्दशोदाहृताः प्रतीतिमनुसरंति कार्यकारण स्वभावोपलब्धिर्भेदत्रयवत्ततो यथायोगमन्यान्युदाहरणानि लोकसमयप्रसिद्धानि परीक्षकैरुपदर्शनीयनि प्रतीतिदायॊपपत्तेः। ___ इस पूर्वोक्त प्रकार निषेधयुक्त साध्य करनेपर विरुद्ध-उपलब्धिके चौदह उदाहरण कहे जा चुके हैं । वे सभी भेद कार्योपलब्धि, कारणउपलब्धि, स्वभावउपलब्धि, इन तीन भेदोंके समान प्रतीतिका अनुसरण कर रहे हैं । अर्थात् कारण, भाव, आदिको साधनेमें कार्य, स्वभाव आदिक हेतु जैसे प्रतीत हैं, उसी प्रकार निषेधको साधनेमें विरुद्ध उपलब्धिके भेद भी प्रतीत किये जा रहे हैं । तिस कारण परीक्षक विद्वानोंकरके योग्यता अनुसार अन्य भी लोक और शास्त्रमें प्रसिद्ध हो रहे उदाहरण दिखला देने चाहिये । क्योंकि उदाहरणोसे प्रतीतिकी दृढता सिद्ध हो जाती है । साधारण बुद्धिको रखनेवाले पुरुष भी उदाहरणोंसे कठिन प्रमेयोंको जान जाते हैं । यहांतक दो सौ चवालीसवीं वार्तिकमें कही गयी पहिली विरुद्ध--उपलब्धिका विस्तार कहा।
संमति साध्येनाविरुद्धस्याकार्यकारणेनार्थस्योपलब्धिभेदान् विभज्य प्रदर्शयन्नाह
इस समय साध्य अर्थसे अविरुद्ध हो रहे और कार्य, कारणपनेसे रहित अर्थकी उपलब्धिके भेदोंका विभाग कर प्रदर्शन करते हुए, आचार्य महाराज कहते हैं । अर्थात तीसरे अकार्यकारणहेतुका विस्तार कहा जाता है।
साध्यार्थेनाविरुद्धस्य कार्यकारणभेदिनः । उपलब्धिस्त्रिधाम्नाता प्राक्सहोचरचारिणः ॥ २७५॥
साध्यरूप अर्थके साथ अविरोधको प्राप्त हो रहे और कार्यकारणपनेसे भेदवान् हो रहे हेतुकी उपलब्धि तीन प्रकारको पूर्वाचार्य सम्प्रदाय अनुसार मानी गई है। वह पूर्वचर, सहचर और उत्तरचरभेदोंमें विभक्त है।