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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः अर्थात् हम लोगोंमें मत्यज्ञान आदिक नहीं हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शका निर्णय हो रहा है। यहां कुज्ञानोंका सहचारी मिथ्याश्रद्धान है, मिथ्याश्रद्धानका व्यापक मिथ्यादर्शन है। उसके विरुद्ध सम्यग्दृष्टिपनेकी उपलब्धि हो रही है। तदेतत्सहचरव्यापि द्विष्टकार्योपलंभनम् । प्रमाणादिप्रतिष्ठानसिद्धेरिति निबुध्यताम् ॥ २७२ ॥ इसी अनुमानमें प्रमाण, प्रमेय, वस्तुत्व, आत्मा आदि तत्वोंकी प्रतिष्ठापूर्वक सिद्धि होनेसे इस प्रकार हेतु लगा देनेसे यह सहचरव्यापकविरुद्ध कार्य उपलब्धि समझ लेनी चाहिये । वह इस प्रकार है कि निषेध्य कुज्ञानोंका सहचर मिथ्याश्रद्धान है, उसका व्यापक मिथ्यात्व है। उसका विरुद्ध सम्यग्दृष्टिपना है । सम्यग्दृष्टिपनका कार्य प्रमाण, प्रमाता, संवर, निर्जरा, आदि तत्त्वोंकी प्रतिष्ठा करना है, तिस कारण यह सहचर-व्यापकविरुद्ध-कार्यउपलब्धिहेतु है। सहचारिनिमित्वेन विरुद्धस्योपलंभनं। तन्नास्त्यस्मासु दृग्मोहः प्रतिपक्षोपलंभतः ॥ २७३ ॥ निषेध्य साध्यके सहचारीके निमित्त कारणसे विरुद्ध हो रहेकी उपलब्धिरूप न्यारा हेतु है। उसका उदाहरण यों है कि अहंतदेवकी उपासना करनेवाले हम आदि लोगोंमें दर्शनमोहनीयकर्मका उदय नहीं है । क्योंकि उसके प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शनरूप परिणामोंकी उपलब्धि हो रही है। यहां निषेध योग्य दर्शनमोहनीय उदयका सहचारी कुमतिज्ञान है। उसका निमित्तकारण मिथ्याश्रद्धान है । उसके विरुद्ध सम्यग्दर्शन परिणामोंकी उपलब्धि हो रही है। यथेयं सहचरविरुद्धोपलब्धिर्नास्ति मयि मत्याधज्ञानं तत्त्वश्रद्धानोपलब्धेरिति तथा सहचरविरुद्धकार्योपलब्धिः प्रशमादिनिश्चितेरिति सहयरव्यापकीवरुद्धोपलब्धिः सद्दर्शनत्वनिश्चितेरिति सहचरव्यापकविरुद्धकार्योपलब्धिः प्रमाणादिव्यवस्थोपलब्धेरिति सहचरकारणविरुदोपलब्धिर्दर्शनमोहमतिपक्षपरिणामोपलब्धेरिति निबुध्यतां मत्याद्यज्ञानलक्षणनिषेध्याभावाविनाभावमतीतेरविशेषात। जिस प्रकार यह सहचरविरुद्ध उपलब्धि है। यह विशेष स्पष्टीकरण यो समझ लेना कि मुझमें मति, श्रुत, अवधिके प्रतिकूल अज्ञान नहीं हैं। क्योंकि तत्त्वोंके श्रद्धानकी उपलब्धि हो रही है, यह हेतु है, उसी प्रकार सहचरविरुद्ध-कार्यउपलब्धि हेतु प्रशम आदिका निश्चय होना है। तथा सद्दर्शनपनेका निश्चय यह हेतु सहचरव्यापक-विरुद्ध उपलब्धि है । और प्रमाण आदिकी व्यवस्थाका उपलम्भ होना यह सहचरव्यापक-विरुद्धकार्यउपलब्धि हेतु है । तथैव दर्शनमोहनीयके प्रतिपक्षी परिणामोंकी उपलब्धि यह हेतु तो सहचरकारणविरुद्ध-उपलब्धि है, ऐसा
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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