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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तदभावे च मत्याद्यविज्ञानं विनिवर्तते ।
मतिज्ञानादिभावेन तदास्य परिणामतः ॥ २६९ ॥ . .. प्रतिषेध करने योग्य अर्थात् जिस साध्यदलमेंसे अभाव अंश छोड दिया गया है, ऐसे साध्यके सहचारीके विरुद्धकी उपलब्धिरूप हेतु देखा गया है। उसका उदाहण इस प्रकार है कि मुझमें मति आदिक अज्ञान यानी कुमति, कुश्रुत, विभंग, या तीसरे गुणस्थानके मिश्रज्ञान नहीं हैं, क्योंकि जीव आदि तत्त्वार्थोके श्रद्धानकी सिद्धि हो रही है। यहां सहचारीके निषेध करके मिथ्याश्रद्धान देखा जा चुका है। अतः निषेध्य कुज्ञानोंके साथ चरनेवाले मिथ्याश्रद्धानसे विरुद्ध तत्त्वश्रद्धानकी सिद्धि देखी जाती है । तिस कारण उस मिथ्याश्रद्धानको घातनेवाला तत्त्वश्रद्धान उस मिथ्याश्रद्धानको शीघ्र नष्ट कर देता ही है। और मिथ्याश्रद्धानका अभाव हो जानेपर कुमति, कुश्रुत, विभंग, आज्ञानों की विशेषतया निवृत्ति हो जाती है। क्योंकि उस समय तत्त्वश्रद्धानके होनेपर इस कुज्ञानका ही उत्तरकालमें सुमति, सुश्रुत, और अवधिज्ञानपर्याय करके परिणमन हो जाता है। जैसे कि श्रेष्ठ औषधिके सेवनसे दूषितरक्त, मांस आदिका ही समीचीन पुष्ट, बलिष्ठ, रक्त, मांस आदि परिणाम हो जाता है। ___ सहचरविरुद्धोपलब्धिरपि हि गमिका प्रतीयते इति प्रसिद्धासौ।
- सहचरविरुद्ध उपलब्धि भी अपने साध्यकी ज्ञापिका हो रही है। इस कारण वह भी हेतुके भेदोंमें प्रसिद्ध हो रही गिनी जाती है।
तथा सहचरद्विष्टकार्यसिद्धिनिवेदिता। प्रशमादिविनिर्णीतेस्तन्नास्माखिति साधने ॥ २७० ॥
इस ही साध्यवाले अनुमानमें सहचर विरुद्ध कार्य उपलब्धिका निवेदन कर दिया गया समझ लेना, जो कि हम धार्मिक जैन लोगोंमें कुज्ञान नहीं है (प्रतिज्ञा ) क्योंकि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आदि गुणोंका विशेषरूपसे निर्णय हो रहा है ( हेतु), इस प्रकार साधनेपर घटित हो जाती है। निषेध करने योग्य मत्यज्ञान आदिका सहचारी मिथ्याश्रद्धान है । उससे विरुद्ध तत्त्वश्रद्धान है। उसका कार्य प्रशम आदि गुणोंकी सिद्धि है।
तस्मिन्सहचरव्यापि विरुद्धस्योपलंभनम् ।
सदर्शनत्वनिर्णीतेरिति तज्ज्ञैरुदाहृतम् ॥ २७१ ॥
उस पूर्वोक्त साध्यको साधनेमें ही सम्यग्दर्शनपनेका निर्णय करनारूप हेतु लगा देनेसे सहचर व्यापक विरुद्धकी उपलब्धि हो जाती है । इस प्रकार अनुमानवेत्ता विद्वानोंने उदाहरण दिया है।