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तत्वार्थचिन्तामणिः
न हीयं कारणव्यापकविरुद्धोपलब्धिरसिद्धा निषेधस्य निर्वाणस्य हेतोर्व्यापकस्य सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकत्वस्य निश्चयात् तद्विरुद्धस्य ज्ञानमात्रात्मकत्वस्य सांख्यादिभिः स्वयं संमतत्वात् ॥
यह कारणव्यापकविरुद्ध उपलब्धि हेतु असिद्ध नहीं है, अर्थात् पक्षमें वर्त्त रहा है। क्योंकि निषेध करने योग्य निर्वाणका कारण मोक्षमार्ग है । उस मोक्षमार्गका व्यापक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनोंकी एकतास्वरूप है, ऐसा इसका निश्चय हो रहा है। उस रत्नत्रयसे विरुद्ध अकेले ज्ञानस्वरूपको ही सांख्य आदिकोंने स्वयं मोक्षका कारण सम्मत किया है।
कारणव्यापकद्विष्टकार्यदृष्टिस्तु तद्वचः। सम्यग्विवेचितं साध्याविनाभावि प्रतीयते ॥ २६६ ॥ .
इसी कहे हुये हेतुमें कार्य लगाकर कारणव्यापकविरुद्ध कार्यउपलब्धिका उदाहरण तो इस प्रकार है कि सांख्य आदिकोंके यहां मोक्ष नहीं बनती है। क्योंकि उनके यहां मोक्षका कारण अकेले ज्ञानका ही वचन सुना जाता है । यह हेतु अपने साध्यके साथ अविनाभाव रखनेवाला प्रतीत हो रहा है । इसका हम भले प्रकार विवेचन कर चुके हैं । अथवा भले प्रकार विचार कर लिया गया साध्यसे अविनाभावी हेतु अपने साध्यको साधनेवाला प्रतीत हो रहा है।
सांख्यादेर्नास्ति निर्वाण ज्ञानमात्रपचनश्रवणादिति कारणव्यापकविरुद्धकार्योपलब्धि: प्रत्येया सुविवेचितस्य कार्यस्य साध्याविनाभावसिद्धः।
सांख्य आदि प्रतिवादियोंके यहां मोक्ष नहीं हो पाती है । क्योंकि उनके यहां मोक्षके कारणोंमें अकेले ज्ञानका ही वचन सुना जाता है । इस प्रकार कारणव्यापकविरुद्ध-कार्यउपलब्धि समझ लेनी चाहिये । निषेध करने योग्य निर्वाणका कारण मोक्षमार्गरूप परिणाम है। उसका व्यापक रत्नत्रय है । रत्नत्रयके विरुद्ध अकेला ज्ञान है । उस अकेले ज्ञानका कार्य उनके शास्त्रोंमें मुक्तिके कारण अकेले ज्ञानका ही वचन सुना जाता है । प्रतिपादकके ज्ञानका कार्य प्रतिपादकका वचन है। अच्छे प्रकार विवेचन कर दिया गया, कार्य तो साध्यके साथ अविनामाव रखता हुआ सिद्ध हो जाता है।
दृष्टा सहचरद्विष्टोपलब्धिस्तद्यथा मयि । नास्ति मत्याद्यविज्ञानं तत्त्वश्रद्धानसिद्धितः ॥ २६७ ॥ सहचारिनिषेधेन मिथ्याश्रद्धानमीक्षितम् । तन्निहंत्येव तद्घाति तत्त्वश्रद्धानमंजसा ॥ २६८ ॥