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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यावान्कश्चिनिषेधोत्र स सर्वोनुपलंभवान् । यत्तदेष विरुद्धोपलंभोस्त्वनुपलंभनम् ॥ २४६ ॥ इत्ययुक्तं तथाभूतश्रुतेरनुपलंभनम् । तन्मूलत्वात्तथाभावे प्रत्यक्षमनुमास्तु ते ॥ २४७॥
अर्थके निषेधको साधनेपर निषेध्य अर्थके विरुद्धकी उपलब्धिरूप हेतुका वह उदाहरण इस प्रकार है कि सम्पूर्ण प्रकारोंसे एकान्त नहीं है, क्योंकि अनेक धर्मोकी उपलब्धि हो रही है। यहां किसीकी शंका है कि जिस कारण कि जितने भी कोई यहां निषेध हैं, वे सभी अनुपलम्भयुक्त हैं, तिस कारण यह एकान्तसे विरुद्ध अनेकान्तका उपलम्भ होना अनुपलंभ हो जाओ । आचार्य कहते हैं कि यह कहना युक्तिरहित है । क्योंकि तिस प्रकार होता हुआ अनुपलम्भ सुना गया है। अनुपलम्भका मूल कारण प्रत्यक्ष है । तिस प्रकार न माननेपर तो तुम्हारे यहां प्रत्यक्षप्रमाण अनुमान हो जाओ अर्थात् अनेकान्तके प्रत्यक्षस्वरूप उपलम्भसे एकान्तोंका अभाव अनुमित हो जाता है। ऐसी दशामें प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रतिष्ठित बने रहते हैं, अन्यथा नहीं।
तथैवानुपलंभेन विरोधे साधिते कचित् । स्यात्स्वभावविरुद्धोपलब्धिवृत्तिस्तथैव वा ॥ २४८ ॥ लिंगे प्रत्यक्षतः सिद्धे साध्यधर्मिणि वा कचित् । लिंगिज्ञानं प्रवर्तेत नान्यथातिप्रसंगतः ॥ २४९ ॥ गौणश्चेद्वयपदेशोऽयं कारणस्य फलेस्तु नः। .. प्रधानभावतस्तस्य तत्राभिप्रायवर्तनात् ॥ २५० ॥
तिस ही प्रकार अनुपलम्भ करके कहीं विरोधका साधन करनेपर स्वभाव विरुद्धकी उपलब्धिका वर्तना होवेगा जैसे कि विशिष्ट उष्णताके अनुपलम्भसे अग्निका अभाव ( विरोध ) साधा जाता है । अथवा तिस ही प्रकार किसी साध्यरूप धर्मसे सहित हो रहे दृष्टान्तमें प्रत्यक्ष प्रमाण 'द्वारा हेतुके प्रसिद्ध हो जानेपर कहीं लिङ्गीका ज्ञान प्रवर्तेगा। ज्ञापकत्व संबंधसे लिंगसहित लिंगी साध्य कहलाता है । दूसरे प्रकारोंसे लिंगीके ज्ञानोंकी प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि अतिप्रसंग दोष हो जायगा अर्थात् दृष्टान्तमें व्याप्तिका ग्रहण किये विना ही चाहे जिस अतीन्द्रिय हेतुसे चाहे जिस साध्यका अनुमान हो सकेगा । यदि बौद्ध यों कहें कि यह कारणपनेका व्यवहार करना गौण है । तब तो हम जैन कहेंगे कि हमारे यहां फलरूप कार्यमें स्वभावपनेका व्यपदेश गौणरूपसे हो जाओ कि उस स्वभाववान्के साधनेमें अथवा स्वभावविरुद्ध हेतुका विरोधी भावके साधनेमें प्रधानरूासे अभिप्राय वर्त रहा है।