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अनादिसे अनंतकालतक ठहरनेवाले द्रव्यके साथ ध्रुवरूपसे हो रहे सहभावी गुणात्मकपना न माननेपर द्रव्यको यथार्थ करके अक्रमपनेसे यानी युगपत् कार्यकारीपनकी संगति नहीं बनेगी, तथा क्रमसे उत्पन्न होना चाह रहे उत्पाद, न्ययरूप अपने पर्यायोंके अभाव माननेपर किसी भी द्रव्यके क्रम, क्रमसे कार्यकारीपनकी समीचीन गति नहीं हो सकती है, जब अर्थक्रियाको संपादन करानेके बीजभूत वे उत्पाद व्यय, ध्रौव्यस्वरूप सहभावी और क्रमभावी परिणाम नहीं माने जायगे तो उस पदार्थका द्रव्यपना कैसे सिद्ध होगा ! जैसे कि क्रम और युगपत्पन सो अर्थक्रियाको न करनेसे आकाश पुष्पको द्रव्यपना नहीं सिद्ध होता है । इस प्रकार यह द्रव्यत्व हेतु सत्त्वहेतुके समान उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, जात्मक साध्यको साधनेके लिये पक्के तौरसे समर्थ है। क्योंकि अविनाभाव यहां विद्यमान है। अविनामावसे ही समीचीन हेतुके लक्षणका विशेष निश्चय हो जाता है।
तदियमकार्यकारणरूपस्य साध्यस्वभावस्योपलब्धिनिषितोक्ता । साध्यादन्यस्योपलब्धि पुनर्विभज्य निश्चिन्वन्नाहा
तिस कारण यह कार्य, कारण, दोनों खरूपोंसे रहित साध्यस्वभावकी उपलब्धि निश्चित की जा चुकी कह दी गई है। अब साध्यसे अन्यकी उपलब्धिरूप हेतुका फिर विभाग कर निश्चय कराते हुये आचार्य महाराज स्पष्ट निरूपण करते हैं।
साध्यादन्योपलब्धिस्तु द्विविधाप्यवसीयते । विरुद्धस्याविरुद्धस्य दृष्टेस्तेन विकल्पनात् ॥ २४४ ॥
साध्यसे अन्यपदार्थकी उपलब्धि तो दोनों भी प्रकारकी निश्चित जानी जा रही है। उस साध्यके साथ विरुद्ध हो रहेका उपलम्भ होना और उस साध्यसे अविरुद्धका उपलम्भ होना, इस प्रकार दो भेद किये जाते हैं। साध्यकोटिमेंसे न को निकालकर उससे विरुद्धकी उपलब्धि समझ लेना ।
साध्यादन्यस्य हि तेन साध्येन विरुद्धस्योपलब्धिरविरुद्धस्य वा द्विधा कल्प्यते सा गत्यंतराभावात् । वत्र. कारण कि साध्यसे अन्यकी उस साध्यकरके विरुद्ध हो रहे की उपलब्धि और साध्यसे अविरुद्धकी उपलब्धि इस ढंगसे वह उपलब्धि दो प्रकार कल्पित की गई है। अन्य उपायका अभाव है। तिनमें पहिलीका निरूपण करते हैं।
प्रतिषेधे विरुद्धोपलब्धिरर्थस्य तद्यथा। नास्त्येव सर्वथैकांतोऽनेकांतस्योपलंभतः ॥ २४५ ॥