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तत्त्वार्थ लोक वार्तिके
निश्चितानिश्चितात्मत्वं न चैकस्य विरुध्यते । चित्रताज्ञानवन्नानास्वभावैकार्थसाधनात् ॥ २३८ ॥
जाता है । कारण कि
वह किसीका कहना समीचीन नहीं है, क्योंकि वस्तुके अनेक स्वभावोंका विशेष निश्चय होते हुये भी कतिपय धर्मयुक्त वस्तुका निश्चय नहीं हो पाता है। ऐसी दशा होनेपर सत्व, परिणामित्व आदि हेतुओं में उत्पाद आदिसे घिरे हुये साध्यस्वरूपके साथ अविनाभावका निश्चय होनेसे भी साध्य का निश्चय होना मनुष्योंके देखा जाता है । उष्णताको देखकर अग्निका ज्ञान हो एक भाव निश्चितस्वरूपपन और अनिश्चितस्वरूपपनमें कुछ विरोध नहीं पड़ते हैं । अनेक स्वभाववाले एक अर्थको चित्रपनके ज्ञानसमान साध दिया गया है । अर्थात् वस्तुके एक निश्चितस्वभावसे अनुमान द्वारा अन्य स्वभावोंके साथ तदात्मक हो रहे वस्तुका निश्चय हो जाता है। तत एव न पक्षस्य प्रमाणेन विरोधनं । नापि वृर्त्तिर्विपक्षे तद्धेतोरेकान्ततश्च्युतेः ॥ २३९ ॥ उत्पादव्ययनिर्मुक्तं न वस्तु खरशृंगवत् ।
नापि श्रौव्यपरित्यक्तं ध्यात्मकं स्वार्थतत्त्वतः ॥ २४० ॥
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तिस ही कारण पक्षका यानी प्रतिज्ञाका प्रमाणकरके विरोध नहीं हुआ। एक ही धर्मसे युक्त पदार्थ हैं, इस सिद्धांतसे च्युत हो जानेके कारण उस सत्त्वहेतुकी विपक्षमें वृत्ति भी नहीं है । जो उत्पाद और व्ययसे सर्वथा रहित है, वह गधेके सींगसमान कोई वस्तु नहीं है । तथा ध्रुवपनसे छोड दिया गया भी शशाके सींग समान कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है । अतः कूटस्थ नित्यवादी सांख्योंका और निरन्वय क्षणिकवादी बौद्धोंका मन्तव्य गिर जाता है । विचार करनेपर अपना अर्थ - क्रिया करनारूप, प्रयोजन तत्त्वकी अपेक्षासे सम्पूर्ण पदार्थ पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तरवर्त्ती स्वभाब्रोंका ग्रहण, तथा अन्वितरूपसे ध्रुवपनारूप तीन धर्मोकरके तदात्मक हो रहे हैं ।
सहभाविगुणात्मत्वाभावे द्रव्यस्य तत्त्वतः । मोत्पित्सु स्वपर्यायाभावत्वे च न कस्यचित् ॥ २४१ ॥ नाक्रमेण क्रमेणापि कार्यकारित्वसंगतिः । तदभावे कुतस्तस्य द्रव्यत्वं व्योमपुष्पवत् ॥ २४२ ॥ एवं हेतुरयं शक्तः साध्यं साधयितुं ध्रुवम् । सत्त्ववन्नियमादेव लक्षणस्य विनिश्वयात् ॥ २४३ ॥