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तत्वार्थचिन्तामणिः
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कार्यकारणनिर्मुक्तवस्तुदृष्टिर्विवक्ष्यते । तत्स्वभावोपलब्धिश्च तदसम्बन्धनिश्चिता ॥ २३२ ॥ कथंचित्साध्यतादात्म्यपरिणाममितस्य या। स्वभावस्योपलब्धिः स्यात्साविनाभावलक्षणा ॥ २३३ ॥ उत्पादादित्रयाक्रांतं समस्तं सत्वतो यथा।
गुणपर्ययवद्रव्यं द्रव्यत्वादिति चोच्यते ॥ २३४॥
कार्य और कारणसे रहित हो रहे वस्तुका उपलम्भ जब विवक्षित किया जाता है, तब वह कार्यकारण सम्बन्धके रहितपनसे निश्चित की गई स्वभावउपलब्धि कही जाती है । साध्यके साथ कथंचित् तदात्मकपन परिणामको प्राप्त हो रहे स्वभावका उपलम्भ जो होगा वह अविनाभावस्वरूप होता हुआ स्वभाव उपलम्भ हेतुका बीज है । उसके उदाहरण यों हैं कि सम्पूर्ण पदार्थ ( पक्ष ) उत्पाद, व्यय और धौम्य इन तीन धर्मोसे अधिरूढ हो रहे हैं (साध्य ), सत्त्व होनेसे (हेतु) घडा, कडा, पेडा, आदिके समान ( दृष्टान्त ) तथा द्रव्य ( पक्ष ) सहभावी गुण और क्रममावी पर्यायोंसे युक्त है ( साध्य ), द्रवणपना होनेसे (हेतु ), इस प्रकार स्वभाव उपलम्मके उदाहरण कहे जाते हैं । सम्पूर्ण पदार्थोका सतूपना स्वभाव है । और गुणपर्ययवान्का स्वभाव द्रव्यत्व धर्म है।
यस्यार्थस्य स्वभावोपलंभः स व्यवसायकः। सिद्धिस्तस्यानुमानेन किं त्वयान्यत्मसाध्यते ॥ २३५ ॥ समारोपव्यवच्छेदस्तेनेत्यपि न युक्तिमत् । । निश्चितेर्थे समारोपासंभवादिति केचन ॥ २३६ ॥
किसी प्रतिवादीका यहां पूर्वपक्ष है कि जिस अर्थके स्वभावका उपलम्भ निश्चयसहित हो रहा है, उस स्वभाववान् अर्थके निश्चयकी सिद्धि तो अवश्य ही हो चुकी है। फिर उस स्वभाववान् अर्थका अनुमान करनेसे तुमने किस अतिरिक्त अर्थको बढिया साधा है ! बताओ। यदि तुम जैन यों कहो कि स्वभाववान् अर्थमें किसी कारणसे संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, अथवा अज्ञानरूप समारोप उत्पन्न होगया है, उसका व्यवच्छेद करना अनुमानसे साधा जाता है, यह तुम्हारा कहना भी युक्तिसहित नहीं है । क्योंकि निश्चित किये जा चुके अर्थमें समारोप होनेका असंभव है । इस प्रकार कोई कह रहे हैं। तदसद्वस्तुनोनेकखभावस्य विनिश्चिते। .
. सत्त्वादावपि साध्यात्मनिश्चयानियमान्नृणाम् ॥ २३७ ॥
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